Saturday, December 18, 2010
ABHYARTHANA
तड़ित की क्षणिक चकाचौंध में
प्रभात की सुबह की आद्र ओस में
मैं अनुभव करता हूं तुझे भगवन
घनघोर कालिमा के श्यामल पटल में
चंद्रराश्मियों के आलोकित आवरण में
अपनी ही बनायीं तिलिस्म की झूठी पकड़ में
मैं अनुभव करता हूं तुझे भगवन
सुमनों पर जब मंडराता है भ्रमर
कलिका खोल देती है अपना घूंघट
जिसकी मादकता में भूल जाता सबकुछ
फिर-फिर पाता है रस सिंचित नवजीवन
वृक्षों पर टिकोरें बन जाते हैं रसाल
किसी के जामुनी केश्राशी में प्रकटित चाँद
मैं अपनापन भी जब पूर्णरूपेण भूल जाता हूं
तब आकाशगंगा की चाल में पाता तेरा नर्तन
जब कोई योगी योगबल से कुछ पाता है
बना लेता है जब मुझसे कोई पहचान
मैं भी अनवरत संघर्ष का कर देता हूं एलान
तुझे पाने का प्रण करता होकर अविराम
गूंगा नहीं बता सकता जिस तरह मिठास
वैसा ही कुछ मुझको भी होता एहसास
नक्षत्रों के जगमग में रहस्य होता पर्दाफाश
हर कहीं तेरी माया का वाद्य गुंजन
प्रकट प्रकृति की अनुपम शोभा निरख
तुम हो इसका होता निश्चित भान
काश मैं अग्नि की तरह व्यापक
मानव-निर्मित बिजली का यंत्रों से होता ज्ञान
सब तरफ तेरा ही अद्भुत चमत्कार
पार ना पा सके योगी,भोगी और विद्वान्
मैं अकिंचन रजकण सा ढूंढता तुझे
समझा तो यही समझा घट-घट में तू विराजमान
तेरा ही दिया जीवन जिए जा रहा हूं
खुद ही कैसे कर सकता मृत्युवरण?
जब तुमने अवसर दिया है स्वयं को जानने का
फिर क्यूँ अपने को कम आंके अनमोल 'रतन'
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जिसे जोगी जान ना पाए
ध्यान लगा गिरि-गह्वरों में
मैंने अक्सर अनुभव
किया उसे अपने ह्रदय में
Wednesday, October 13, 2010
haan maine bhi ..... !!!
अभिशापित जीवन जीया
देख कर मेरा करून क्रंदन
तुम क्यों करती व्यर्थ रुदन
स्नेह संबल सब छुट गए
गिरि_ चोटी पर खड़ा करता आराधन
बारम्बार तुमको पास बुलाया
खुद भी भरमा तुम्हे भरमाया
मैं क्या जानूं , क्या समझूं
करके तुम्हे शम्मा के रूबरू
अपनी फबन तुम स्वयं हो
बचा लो अपनी आबरू
मैं नहीं गया तुम्हारे द्वार
पथ ही अवरोध बना .
स्वर्ग_ नरक सब यहीं हैं
चुड़ैल यहीं अप्सरा यहीं है
मैं रखता विश्वास इसमें
और मेरा यकीन यही है .
जीवन स्वयं बर्बाद किया
पर तुमको आबाद किया .
यक्ष बना फिरता मंडराता
अखिल ब्रम्हांड मेरा बसेरा
सत्यव्रती कोई मिलता नहीं
प्रश्नोत्तर का ही भरोसा
कुछ सही कुछ गलत हुआ
ऐसा मेरे जीवन के साथ हुआ
ममतामयी छांव मे न बैठा
झूठी अकड़ के धुप में बैठा
किसने किसके साथ क्या किया
शायद मैं कुछ का कुछ समझा
भूल गया वादा , पिछला
इस जनम मे गया छला
हाँ मैंने भी पाप किया
अभिशापित जीवन जिया .
janam janam ka main bairaagi.......!!!!!!!!
Friday, September 3, 2010
तू मुझे प्यार करे ......!!!
जिसकी नहीं कोई थाह
हम तुम मुसाफिर हैं
जीवन है एक छोटी नाव !
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पहले इसके दुश्मनी हमसे संसार करे
मैं तुझे प्यार करूँ तू मुझे प्यार करे ।
कौन आता है मुक़ाबिल वफ़ा के देखें
मैं तेरा इंतज़ार करूँ तू मेरा इंतज़ार करे ।
बिला वजह तंगदिल है आशियाना सारा
मैं तेरा दीदार करूँ तू मेरा दीदार करे ।
कहते हैं तो मिलते हैं सनम कहीं भी
मैं तेरी बात करूँ तू मेरी बात करे ।
कद्र्दाने हुस्न बहुत हैं तेरा ध्यान इधर
मैं तेरा ख्याल करूँ तू मेरा ख्याल करे ।
राहे वफ़ा में आता है वक़्त कभी नामुनासिब
मैं तेरा मुन्तशिर हूं तू ख्याले जज़्बात करे ।
तेरे लबों की खामोशी कुछ कहती है
मैं तुझसे इज़हार करूँ तू मेरा इमदाद करे ।
सनमखाना है तेरा बूते महफिले हरम
मैं तुझे पेश करूँ तू मुझे पेशे जाम करे ।
जीने का करीना तुम्ही से सीखा है हमने
आओ बज़्म में हम तेरा इस्तकबाल करें ।
शोहरत तेरी हर महफ़िल हर बुतखाने मे
मैं तुझे सलामे नज़र करूँ तू मुझे सलाम करे ।
वाइज़ के कहने से कैसे तौबा कर ले हम
तू जब तक न कहे कैसे तुझे अलविदा कहें ।
दरियाए मुहब्बत में भंवर भी मंझधार भी
तुम मुझे साहिल बख्शो हम तुझे पार करें ।
कौन कहता है शम्मे महफ़िल में नूर नहीं
अपने फलसफे मे फ़साने में तुझे किरदार करें ।
तू कहीं आसमानों से उतर कर आती हो 'ताज '
मैं तुझे माहताब कहूं तू मुझे आफताब कहें ।
अब तो अपना दिल कहीं भी लगता नहीं
'रतन ' तुझे खुशहाल करे तू मुझे आबाद करे ।
ये बहार न होती ....!!!
गर कश्तिये जिंदगी के लिए याद पतवार न होती ।
बिखरते_ बिखरते रह गया मेरा चंचल मन
चूड़ियों की खनखनाहट में उलझ गया ये जीवन
मस्ती छिटकी, प्यार की हवा अंगनाई अंगनाई चली
नेह_नाता तुमसे बन गया प्रीत का अनमोल बंधन ।
फिर जिंदगी का रिसता ज़ख्म कैसे भर जाता
जब मुझे बहलाने को पायल की झंकार न होती ।
तुम्हारे होठों की लाली बन गयी तक़दीर मेरी
सौगाते जिंदगी बन गयी है ये तस्वीर तुम्हारी
सुकून बन के जिंदगी मे आई हो ऐ हमकदम
मेरे ज़ख्मों को सहलाने की अच्छी है तदबीर तुम्हारी ।
शर्मो हया का आँचल जो लगा लेती रुख से अपने
तो तुम्हारी आब्शारेज़ुल्फ़ की ठंडी फुहार न होती ।
तुम्हारे न होने से आज प्यास फिर बढ़ गयी है
एक आग सी दिल मे मेरे फिर लग गयी है
जाने क्या सोच कर तुम पैगामे रुसवाई भेजती हो
जबकि संवर के ये दुनिया मेरी फिर बदल गयी है ।
पा कर तुम्हारा साथ साजे जिंदगी छेड़ दिया था मैंने
तुम अदाए जफा छोड़ देती तो जिंदगी अंगार न होती ।
मौसमे बहार में हर कली महकी महकी थी
शाखे जिंदगी पर हर बुलबुल कुहुकी कुहुकी थी
वो झरनों की घाटी में देवदारों के साए तले
हर बात तुम्हारी मीठी हर अदा बहकी बहकी थी
अब तो हर तमन्ना पर पद गया है मौत का साया
तुम जो मिल जाती तो जिंदगी ये सोगवार न होती ।
मेरी जिंदगी में ये ख़ुशी ये बहार न होती
गर कश्तिये जिंदगी के लिए याद पतवार न होती ।
Wednesday, August 25, 2010
साकी और वो ...........!!!!!!!!!
मैं बैठा हूं प्यासा महफ़िल में छलक रहे पैमाना ।
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अभी मेरा जाम मत भरो
मैं तौबा दुहरा रहा हूं ।
किसी ने दी थी अपनी कसम
यही सोच कर घबरा रहा हूं ।
साकी तेरा ख्याल भी है
मयकदे से प्यार भी है
मदहोश होने को जी चाहता है
मगर किसी से इकरार भी है ।
तू सागर से पिलाएगी
वो निगाहों से पिलाते हैं
क्यों फिर वादा खिलाफी सिसकियो
जामे हक वो बार_ बार पिलाते हैं ।
सदा आबाद नहीं रहेगा तेरा मयखाना
जब तक तू है तभी तक तेरा ज़माना
जिस दिन गैरों को पिलाएगी
भूल जाऊँगा मैं अह्दो पैमाना ।
माना मशहूर तू जमाने मे
नहीं है कोई तेरा सानी
पल भर में तोला पल भर मे माशा
काट ले तो कोई मांगे न पानी ।
कभी थिरकती तू नाजो अंदाज़ से
देखती है मुझे नज़रे ख़ास से
सितम भी करती हो गैर के डर से
डर जाता हूं मुहब्बत के अंजाम से ।
तेरी सिसकियो का
मुझ पर कोई असर नहीं
जवानी मयकदे मे हुई है
हमेशा बसर नहीं ।
ये माना तेरी गली का
रास्ता बाद मे पकड़ा
पर उसको इस बात की
दी कभी खबर नहीं ।
तू सरे बज़्म छनकाती
है पायल
और दिल को मेरे कर देती है
घायल ।
अछे अछे तेरी महफ़िल
में हो जाते हैं पागल
कोई जिसे पी न पाया
आज तलक
वो कुछ इस तरह की
है सागर ।
ख्याल उसका आता है
तो सब कुछ भूल जाता हूं
कैसा होश और कैसा नशा
प्यार के हिंडोले मे झूल जाता है ।
छोड़ मेरा अब ख्याल
ऐ साकी ऐ मैखाना
अहद न टूटने पाए
कर ऐसा कुछ बहाना ।
मेरी पलकों पर दस्तक देती
उसकी नज़र
इनायत तेरी और भला
उसको न हो खबर ।
नावाकिफ नहीं वो अगर
तेरे नाम से
ये है कुछ मेरी कलम
का असर ।
आज भी गर तू पिलाएगी
क्या कहूँगा सरे ज़माने से
लाख करे तू फिकरो जातां
आएगा उसका नाम तेरे फ़साने मे ।
मैं महबूब शायर हूं उसका
पहला पहला प्यार हूं उसका
पहले अजनबी थी अब यकीन
क्या करून तिरस्कार उसका ।
तू सबकी है और सबका
तेरा मयखाना
सबको मिलता है यहाँ
बादाओ पैमाना ।
जाने क्यों बदगुमान था
अब तक
अता किया तुमने मुझको
दिल नजराना ।
तेरे मयखाने मे सबका
हिसाब चलता नहीं
मुझे भी मुफ्त यहाँ
कभी मिलता नहीं ।
मैंने भी ग़ालिब बनाने
की सोची नहीं
मेरा भी कोई रास्ता
तकता है कहीं ।
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पुछा जो उनसे तुम्हे हमसे
नफरत है या मुहब्बत
किये जाओगे सितम ही
या दोगे कभी कुछ उल्फत
हंस के फरमाने लगे वो
कह दू तो तुम्हे आ जायेगा सुरूर
कह दूं नफरत फिर भी
दिल तुम्हारा तडपेगा ज़रूर !!!
उसूल ..........!!!
इलज़ाम किसी और पे जाये तो अच्छा ,
मैं भी बदल जाऊंगा , बदल दूंगा उसूल
न लूँगा अपने सर इलज़ाम किसी का ।
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ये क्यों हम लोग उसूल बनाते रहते हैं
और जिंदगी भर उनको संभालते_ संभालते मर जाते है ।
क्या वे ज्यादा सुखी हैं जो उसूल बदल देते हैं
और मौका पड़ने पर गधे को बाप स्वीकारें ।
लोग अपने उसूल के लिए क्या नहीं करते
जान जाए पर उसूल से नहीं समझौता करते ।
हम इस तरह उसूल निभा रहें हैं गोया
किसी तरह अपने कंधे पर अपने को dho रहें हैं ।
हम ने ही हर किसी पर आँख मूँद विश्वास किया
असल मे जिंदगी भर सापों को दूध पिलाते रहे ।
हमारा विश्वास करे न कोई हो सकता है
अब हम भी किसी दिन अपना उसूल बदल दें ।
और सापों को काट ले तो पानी भी न मांगे
सापों को घर से निकलने को आस्तीन फाड़ लेंगे ।
क्या उसूल सदा अछे ही होते रहे हैं आज तक
उसूल पर चलने वालों ने अपनी आँखें fudwa ली ।
क्रोस पर चढ़ गए चमड़ी भी अपनी udhadwaa ली
पर उसूल नहीं बदला भले जान ही दे दी ।
हम सोचते हैं उसूल का मतलब क्या होता है
जो अपनी oar आते हुए तीर के लिए ढाल भी न उठाये ।
अहिंसा परमोधर्मः कह कर गला क्यों कटवाया जाये
इससे तो अच्छा है 'रतन' दुश्मन से दूर_ दूर रहे ।
Saturday, August 14, 2010
मैं शायर तो नहीं बस !!!
शाम के धुंधलके में
चाय के प्याले के साथ
सनम के रूबरू
यूँ तो कभी लिखा करता हूं ।
किसी की बेताब तमन्नाओं
छलकते आँखों के जाम
उनके ढलते आँचल
बजती पाजेब
यानि उनकी हरकत पे
कभी कभी लिखा करता हूं ।
बहुतो ने पुछा, समझा
ये राज़ जानना चाहा
कैसे मैं लिखा करता हूं
क्यों लिखता हूं
क्या मेरे दिल मे भी
लगी है किसी हसीना से चोट
मैं क्या कहूं
लोग इतना भी नहीं समझते
दिल होते हुए भी
जज्बात नहीं पहचानते
अरे मैं कोई प्रेमी नहीं
मैं तो बस तेरी सदा पे
लिखा करता हूं ।
मैं कोई शायर तो नहीं
बस ! ' जबसे देखा तुमको
मुझको शायरी आ गयी '
तुमने तो देखि होगी
वही फिल्म 'बौबी '
ज़माने के बंधन तोड़
मिले दो प्रेमी कहाँ
झील में .....
गए थे ज़माने की
गर्दिशो से हैरान हो कर
ख़ुदकुशी करने ......
ज़माना जो दीवार बना था
उनका हमदर्द बन गया ।
इसलिए तो कहता हूं
आओ हम तुम भी कोशिश करें
एक बार घर छोड़ कर भागें
एक बार झील में कूदें
थोडा हल्ला मचे
थोडा दुनिया स्वांग रचे
फिर गर्दिशो से टकरा कर
हम एक दुसरे के 'वो' बाने।
सच ! बड़ा प्यारा लफ्ज़ है 'वो' भी
कितना अपनापन, कितना अहसास
नज़दीक मे सुनाई पड़ती है
उनकी साँसों की उसांस
दिल का दिल से मिलन होता है
रातें जब बेकल होती हैं
दिन बीत जाता है उदास उदास
सच ! वो का भी बड़ा काम है
दुनिया में बड़ा नाम है
भाभी से कहा
चलो देखे फिल्म
बोली नहीं जाइए
देख आइये आप
नहीं तो मान जायेंगे बुरा 'वो'
सच ! 'वो' में ही अपनापन है
हमारा क्या हम तो गैर हैं
हर बात में बतायेंगी वो
आएंगे वो तो जायेंगे
दार्जिलिंग हम
जायेंगे शिमला
और मनाएंगे हनीमून
काश ! हमारा भी होता कोई ।
भाभी कहती 'चलो
घूम आयें बाज़ार '
हम कहते 'अरे नहीं भाई'
मान जायेंगे बुरा हमारे 'वो '
तब शायद 'वो का 'वो' से
बराबर का रिश्ता होता
जहाँ दिलाते वो
'वो' का अहसास
और हमसे करते
गैर सा बर्ताव
हम भी कहते
हमारा भी है कोई वादा
हमको है उनके साथ जाना
सच बड़ा बढ़िया होता
यह जवाब
उनको होता बोरियत
का अहसास
बेहिसाब
फिर कभी न कहते
जाइए देख आइये फिल्म
हम तो समझते हैं
शायद करते वादा
अगली फिल्म का
किसका ?
शायद किसी अंग्रेजी फिल्म का
आज कल तो उसी का बोल बाला है
जो मतलब समझ ले ठीक
न समझे तो भोला भला है
बस क्यों लिखता हूं ।
कभी कभी उनके भोलेपन पे
लिखा करता हूं
उनकी बेहिसाब
तमन्नाओं पे
लिखा करता हूं
मई शायर तो नहीं
बस.........................!!!
Sunday, August 8, 2010
patthar se na maaro.... !!!
सुनकर तेरा इनकार ।
सुना था ऊँचे महलों मे
रहने वाले होते हैं ,
ठिगने और छुद्र विचारों के ।
पर मेरी कुटिया ही अब
धराशायी हो गयी है ।
और मैं सोचता हूं
मैंने ऐसा क्या लिख दिया
तुम मान गए बुरा
और मांगने लगे बलिदान ।
बुद्धि दौडाता हूं पर ,
अपने को विवेकहीन
और संज्ञाशून्य पाता हूं ।
मुझ पर भारी पद रही
तेरी हर फुफकार ।
अपनी कलम से विवश हूं
ये कभी नहीं मानती हार ।
और मेरे मन और आत्मा
के संघर्ष में भी
अभिव्यक्त कर देती है
मेरे भाव ।
फिर भी स्नेह त्वरित हो
तुमने प्यार की गढ़ ली कुटिया ।
धर पत्र पवित्र कर दो
भूल की सारी त्रुटियाँ ।
अब न तुमसे कोई
सवाल करूँगा
जानता हूं झूठें हैं
सारे रिश्ते नाते
झूठा जगत का व्यवहार ।
खल रहा स्वयं को अब
अपना ही उत्कर्ष ,
पर्वतों की छोटी पर
जाना छोड़ ,
अब समुद्र की गहराई
मापने की बात करूँगा ,
और अपने अन्तस्थल मे
कोई नया प्रतिबिम्ब
न उभरने दूंगा
यह भीष्म प्रतिज्ञा विकराल ।
देख कर तुम्हारा भीषण सत्कार
यूँ लगा जैसे अंधे को
अर्पण आईना कर दिया हो ।
बाजू कटवा लिए
ताजमहल तामीर कर के ,
फिर तोहफे मे
हीरे की अंगूठी पाकर
कुछ ऐसा लगा
सूरत से हो शबनम
सीरत से हो चिंगारी ,
हम गर्दन झुका कर आये
तुमने निकाली आरी ।
काश !
मेरा दिल मोम सा न होता
और न तुम हौसला रखते ,
पत्थर से वार करने का
क्या यही था अंतिम सत्य
जीवन का निषकर्ष ।
सदीयाँ बीत गयी
शायद किसी ने कहा हो
जमाने से ,
पत्थर से न मारो
मेरे दीवाने को !!!
Sunday, August 1, 2010
तनाव........!!!!!!
क्या मृत्यु के बाद भी होता है तनाव
उत्तर यही है यह शाश्वत है बिलकुल अटूट ,
मृत्यु के बाद किसी भी कर्मभोग योनी मे
जन्म लेने के बाद भी होता ही है ।
असामयिक मृत्यु के बाद भी दिगंत
मे भ्रमति आत्मा को रहता है तनाव ,
इससे छुटकारा योगियों तपस्वियों ने पाया
पर समयकाल के आगे यह अल्पकालिक है ।
मुक्ति के बाद भी यह फिर फिर होता है
शश्वत मुक्ति नाम की कोई चीज़ नहीं है ,
वर्तमान समय कलह के वातावरण मे ही
हर कोई है तनावग्रस्त क्या चार क्या अगोचर ।
कोई बेटे से परेशां तो कोई बेटे के लिए
कोई नौकरी से परेशान तो कोई नौकरी के लिए ,
मुझे समझ नहीं आता है क्यों हर कोई तनावग्रस्त
इससे पार होने की कला आज तक मैं जान न पाया ।
हर कहीं हर किसी से यही सुनने को मिलता है
मैं अमुक के लिए परेशान तो अमुक अमुक के लिए ,
मुझे समझ नहीं आता है क्यों हर कोई तानाव्ग्रसित
इससे पार होने की कला आज तक मैं जान न पाया ।
धारणा ध्यान समाधि करके भी नहीं पाया विकल्प ,
यह चतुर्दिक है और न ही इसका कोई और _छोर ।
सदा से व्याप्त है मानव मष्तिष्क मे
सभ्यता के विकास के साथ यह हुआ और विकसित ।
मेरे बुजुर्ग लालटेन की रौशनी मे पढ़ते थे
और हम बिजली के युग मे भी नहीं है तनावमुक्त ,
समस्या और बढ़ी है कम होने की बजाय
कल बैलगाड़ी से चलते थे आज विमान गिराते बम ।
असहायों निर्बलों के रक्त से धरा बन रही उर्वरा
रोम यूनान की संस्कृतियाँ मिट गयी , अपनी जीवित लाश
दारोमदार किस पर मुगलों पर की अंग्रेजो पर
मुग़ल औरंगजेब पर या अंग्रेज लोर्ड मैकाले पर ।
हिन्दुओ को किसी ने मुसलमान होने को विवश किया
तो अंग्रेजियत फैली हर भारतीय बना काला अँगरेज़
समाधान होता हर समस्या का पर जुबां है खामोश
मेरे ही रक्त सम्बन्धी मुझी से लेंगे इसका प्रतिकार ।
किसी भी अभियान से पहले यह बहुत ज़रूरी है
तनावमुक्ति के लिए अभियान चलाने का धंधा
हर कोई ग्रसित है चाहे घर हो या बाह्य समाज
कोई नहीं मुक्त इससे चाहे वो हो खुदा का बन्दा !!!
अफ़सोस .........!!!!!!!!!!
मुझे सवारा गया ,
इसके पहले कुछ जवाब दे पाता
मुझे अर्थी पे सुलाया गया ।
सब कुछ हो गया बस किसी तरह
जानी_अनजानी खता मुआफ
राम जाने किसकी मर्ज़ी से मुझे बाहर
का रास्ता दिखाया गया ।
सभी कन्नी काट रहे थे पर चिल्लाहट
से दिल दहला रहे थे ,
किसी की आँख से एक बूँद आंसू भी
मेरे लिए गिराया न गया ।
एक तो हम पहले से मजबूर थे
समझौता न कर सके ,
हालात से , मकरोफं से किसी तरह
रिश्ता न निभाया गया ।
चन्दन की लकड़ी की ख्वाहिश पूरी ,
न करवा सके जब ,
मेरे अकेले को पांच की जगह
दस मन तुलवाया गया ।
मुझे गंगा किनारे ले जा कर जबरदस्ती
चिता पे सुलाया गया ,
भाद _भूजो se चने मटर की तरह
बावस्ता भुन्वाया गया ।
लपटें उछल रहीं थी धुंआ हवा के
साथ साथ उड़ा ,
तीन लोग घाट पे एक हुजूम था
टीले पर दूर खड़ा हुआ ।
सब मुझ पर अपने अपने झूठे
अहसान गिना रहे थे
मैं भूना जा रहा था अंगारों मे ,
तब्दील होता रहा
तीन दिन के कार्यक्रम को तेरह ,
दिन तक खींचा गया
रोज़ पानी पडा, दिया बात्ती होती रही ,
घाट था बंधा हुआ ।
जो हुआ सो हुआ पर अफ़सोस
मुझे हुआ बस
जहाँ पैदा हुआ उस सरजमीं पर
क्यों न गाड़ा गया ।
समाधि न बनवा पाने की चाहत
कसकती रही 'रतन'
इसी बहाने कोई चुपके से आकर
दो फूल तो चढ़ा जाता !!!
Friday, July 23, 2010
बस एक बार .......!!!!!!!
कनवास भी हो ,
और गर मैं
चित्रकार भी होता
फिर भी भगवन तुम्हारी
तस्वीर नहीं बना सकता ।
कारण साफ़ है ,
तेरी कोई रूपाकृति नहीं ही।
तू रोम_रोम मे समाया है
कण_ कण मे व्यापक है ।
हो मेरे ही अंतर्मन मे
पर आज तक अफ़सोस
तुम्हे पहचान न पाया
ठीक से जान न पाया ।
ये बात नहीं है की
मैंने कोशिश नहीं की
बारम्बार ध्याया है तुझे
समाधि मे बुलाया है तुझे ।
तुम्हारा आज तक कर
नहीं पाया संधान ,
तुम अगम हो अगोचर हो
फिर भी मुझसे अछूते नहीं हो
मैंने बार_बार तुम्हारा अनुभव किया है ।
देख देख कर सितारों की चाल ,
ये हरियाली ये बाग़_बगीचे
क्या नहीं तुम्हारी उपस्तिथि के गवाह
पर मैं सोचता हूं
यह सब करने की
ज़रूरत क्या है
क्यों न मैं अपनी
आत्मा में भी व्यापक
तुमको निरख लूं ।
और एक बार
बस एक बार ही
तुम्हारा अनुभव
अपने अन्दर ही कर लूं ।
निश्चय.....!!!!!
चार काँधे चढ़ के
हम अपनी डगर
खुद पार करेंगे ।
नहीं चाहिए किसी
की मेहरबानी ,
हर सूरत है अपनी,
जानी_पहचानी ।
फिर किस पर
हम नाज़ करेंगे ,
हम अपनी डगर ,
खुद पार करेंगे ।
भले बचपन बीता ,
लाड्ड_ दुलार मे ,
यौवन आया सुकुमार ,
बन कर के ।
बुढापे मे नहीं
त्रास सहेंगे ।
हम अपनी डगर
खुद पार करेंगे ।
बहुत दोस्त हैं कहने
को अपने ,
मौका आने पर
बहाने बनाते ।
हम अविश्वास प्रस्ताव
पास करेंगे
हम अपनी डगर
खुद पार करेंगे ।
सगा नातेदार रिश्तेदार
काम न देगा ,
अपना बेटा ही
दाह कर्म करेगा ।
हम न किसी से
फ़रियाद करेंगे ,
हम अपनी डगर
खुद पार करेंगे ।
जीवन नैया पर
सवार होकर ,
भले दूर जाओ
साथ छोड़ कर,
हम तट को ,
मंझदार करेंगे ।
जीवन की गुलामी
एक त्रासदी है ,
हम ही नहीं
सभी के साथ यही है ।
फिर भी हम यही
बात कहेंगे
हम अपनी डगर
खुद पार करेंगे ।
Wednesday, July 21, 2010
जी का जंजाल........!!!!!!
अपने को क्या समझती है दुनिया
मोहताज़ नहीं मैं सुन e ज़िन्दगी
मैं बर्बाद कर दूंगा तेरी बसी दुनिया
अल्ला तल्ला की क़सम है मुझको
जेहाद के नाम पर कुर्बान ये दुनिया
जब इल्म नहीं था अपनी कमसिनी का
बारे गारा सर पे रख दी अहले दुनिया
न नाम आया और न नामाबर आया
इंतज़ार मे ख़ाक कर दी अपनी दुनिया
फैसले तोः दरअसल वक्ते मशहर होंगे
हम क्यूँ न गुजरें उसकी गली से अहलेदुनिया
वादा ओ इकरार को अभी कैसे झूठा समझे
ऐतबार पे तो कायम है saari ये दुनिया
हम पहले कभी इतने नाउम्मीद न थे
की जब चाहे उम्मीद पे पानी फेर दे दुनिया
सदियों से तलाश की आबे जमजम की
पलट आये समंदर से प्यासे अहले दुनिया
न जानते थे नाकर्दन गुनाहों की होती सज़ा
वर्ना हम कितने गुनाह करते अहले दुनिया
बीच भंवर सफीना दिल का जब डूबा
थोडा लडखडाये फिर संभले अहले दुनिया
थोडा लिहाज़ करता करता,करता अदब-ए-रसूल
वर्ना देखता 'रतन' कितने पानी में दुनिया ॥
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बगावत है मेरी
ये एलान-ए-जंग है
नहीं अनारकली के
लिए न ही अकबर से
सिर्फ झूठे रस्म-ओ-रिवाजों से
पुराने ख्यालों से उसूलों से ॥
Wednesday, July 7, 2010
जाने क्यों ....?????
मुस्कुराता रहता हूं मैं
फिर भी लोग कहते हैं
क्यों गूम्सूम रहता हूं मैं ।
शान मे किसी की
कमी न हो जाये ,
इसलिए सबसे
बा_अदब रहता हूं मैं ।
कोई गालियाँ भी दे
तो खामोश रहता हूं मैं
बेगाने को भी अपना
जान के गले लगता हूं मैं ।
मतलब निकालने को लोग
मतलब रखते हैं ,
गोया की किसी काम
का मुझको समझते हैं ।
मुकद्दर भी कोई चीज़ है
यह तो हर बशर जानता है
असलियत मुकद्दर की
अच्छी तरह समझता हूं मैं ।
उसकी गली मे भूले से
कदम क्या रख दिया
अभी भी अपना दीवाना
समझते हैं वो ।
मुहब्बत भी देखी और
देखी तगाफुल भी
दोनों से बाखबर
बा_ होशियार रहता हूं मैं ।
चले गए दीन_ओ_ईमान भी ,
उनकी मुहब्बत मे
पर अभी भी मुरव्वत से
काम लेता हूं मैं ।
ये झूठे रिश्ते_नाते
कब तक फरेब देंगे
असलियत इनकी
अच्छी तरह समझता हूं मैं ।
अच्छा हुआ .......!!!!!!!!!!
कामयाबी न मिली
मिल भी जाती तो जान भी
सलामत न होती ।
नाकर्दा गुनाहों की कुछ
इस तरह मिली सज़ा
पराई तो पराई अपनी
भी साथ छुड़ा गयी ।
ये नहीं था कि उसे मेरे
पहले प्यार की नहीं थी खबर
साथ देने को उसने किया
वादा फिर वादे से मुकर गयी ।
कारण अज्ञात भी नहीं
ये सदियों से होता आया है ,
मुफलिसों पे काबिज़ हो जाती है
पैसे वालो की हस्ती ।
जब से आया शबाब मुझ पर
निभा रहा हूं जफायी का बोझ
अगर वो वफ़ा निभाती तो क्या
फिर भी क्या नीचे की ज़मीन खिसक जाती ।
पहाड़ की छोटी सर करने की
नीयत दिल पर चोट कर गयी ,
ढूँढने को समंदर से मोती
मेरी चाहत सीपियों से बहल गयी ।
मेरा क्या है आधी से ज्यादा
शबेगम काट चुका हूं ।
बाकी जो बची है जुदाई के गम मे
जिंदगी बिखर जाएगी ।
मुहब्बत का फ़साना
हमेशा रहा है अधूरा
जग जानता है फरहाद को
जीते जी शीरी न मिल पायी ।
हम पहले बेखौफ थे
अपनी मुहब्बत से
जानते न थे वो तकदीर की
खलाओ मे गूम हो जाएगी ।
मैं मंजिल की तरफ
बद्ध जा रहा था
ठोकर लगी तो जाना
उधर वो था मकतल की जानिब ।
बरसात अच्छी लगती थी
खटकती है अब बुरी तरह
चाँदनी चाँद की अब
तन badan मे आग लगाती ।
'रतन' को गिला नहीं किसी से
अपनी तकदीर पे है भरोसा
कभी तो मिलेगी 'ताज'
शहर मे रह कर जो दुबारा नहीं मिलते !!!
Wednesday, June 30, 2010
आँधियों में भी....!!!
वैसे ज़माना हमेशा मेरे खिलाफ रहा ।
कोई न सगा न कोई नातेदार, दोस्त, रिश्तेदार ,
हर बार उनसे मैं ही ठगाता रहा ।
हर बार वो बढे आगे पहल खुद की ,
जब मैं बढ़ा तो उन्होंने बताया धता ।
इरादा न था मेरा किसी को बेपर्दा करूं
जिंदगी मे एक से एक नंगो से पाला पडा ।
कहाँ से लाऊं उनके लिए पैसा ,
जिसके बगैर सबने किनारा किया ।
किसी के लिए न लूँगा अब उधार ,
चाहे वो हो कर्जे से लद्दा हुआ ।
बहनों को बिकी ज़मीन का चाहिए पैसा
जिस मकान मे रहता हूं उसमे चाहिए हिस्सा ।
जिनके लिए तिनके इकट्ठे किये ,
उन्होंने ही नशेमन मेरा फूँक दिया ।
आज तक 'रतन' ने न फ़ोकट मे चाय पी ,
ग़ालिब को उधार पीने मे आता था मज़ा ।
जब कोई अपनापन..... !!!
दिल मे मेरे शुबहा गहराने लगता है ।
बाद मे वही दुश्मनी निभाने लगता है ,
जिस पर अपना दम निकलने लगता है ।
हम तुम्हे ही चाह कर भी क्या करते
बेदखल_ए_ बज़्म करने को चाल कोई चलने लगता है ।
मंज़र देखे ऐसे ऐसे अपनी नज़र ने
एक दूजे के लिए हरेक पराया लगने लगता है ।
तिलस्म सी लगने लगी अब तो दुनिया,
कभी कभी तुम्हारा फंसूं सुहाना लगने लगता है ।
कारीगरी भी उस कारसाज़ की देखी ,
हरेक उलमान ठिगना लगने लगता है ।
यहाँ मय छोड़ी, आरज़ू_ए_वस्ल छोड़ी , वहाँ,
शराब का दरिया हूर का जिस्म दमकने लगता है ।
अपना कहूं भी तो किसको कहूं अब तो ,
जो मिलता है दिल पर खंज़र चलाने लगता है ।
इरादा तो न था करूँ गुहार खुदा से भी ,
जबकि खुद_बा _खुद जलजला उठने लगता है ।
हम क्यों कहें किसी को दुश्मन भी अपना,
जब ऐरा_गैर नत्थू खैर दोस्ती जताने लगता है ।
हम चाक गरेबान हो गए तो ख़याल ये आया ,
कौन सा गद्दार मेरे फ़साने मे टांग अडाने लगता है ।
महशर भी देखेंगे और तुम को भी अहल_ए_सितम ,
अहसास ये दिल को दुखाने लगता है ।
तर्क_ए_वफ़ा तुम करो और इलज़ाम आये हमपे
इकरार तेरा दिल को रुलाने लगता है ।
मकरोफान तुम्हारे तुम्हे ही ले डूबेंगे
समंदर मे नाव, पतवार पुराना लगने लगता है ।
कब इस जलते दिए पर न पड़ी ठंडी फुहारे,
अब वही फिर से बरसने लगता है ।
कायनात भर मे सदा जो धड़कन बन के रहा ,
वही खुदा अब अपना रफ़ीक लगने लगता है ।
हम न भूलेंगे तुमको भले तुम बदल जाओ,
ताज के आगोश में जब दरिया लहराने लगता है ।
नाज़ था जिसको सर पे उठाएंगे दुनिया ,
वक़्त_ए_रुखसत वो हाथ छुडाने लगता है ।
और क्या कहे तुमसे ही 'रतन'की सनम,
कोई मुर्शिद जिन्नात की सूरत सताने लगता है ।
Wednesday, June 2, 2010
किसी को इतना भी
की वह मजबूर एक आह को भी तरसे
पिछली बार भी बाला की तपिश थी
इस बार भी पता नहीं सावन बरसे न बरसे
हम क्यूँ फिरते रहे मुह छुपाते मुह चुराते
अख्तियार उनको था मेरी मौत पर आते न आते
गोते खाते ही ज़िन्दगी अपनी तमाम हुई
हम डूबे भी तो किनारे पे आ कर के
मालूम नहीं क्या लुत्फ़ मिलता है किसी को
धोखा खाकर फिर उसी पत्थर से टकराने मे
नहीं चाहिए तुम्हारी नवाजिश हमको अब तो
उम्र तमाम हुई तुम जैसों को यार बनाते-बनाते
चुल्लू भर पानी भी न मिलेगा तुम्हे
कहाँ तक फिरोगे मुह चुराते छिपाते
हमें मालूम नहीं था इस तरह दमन झाताकोगे
जब कोई सहारा न था किस तरह मंजिल तलाशते
tamam दौड़ ख़तम हुई ,ख़तम हुई भागा-भागी
अच्छा होता रिश्तेदारों जो तुम घर के बाहर मरते
धुप में बाल सफ़ेद नहीं किये हमने अपने
अभी तुम निरे बच्चे हो चले हो पहाड़ा पढ़ाने
सिकंदर मारा तो दुनिया जहां जान गए
मैं मिटा तो कोई नहीं आया कब्र पे फूल चढाने
मैं ही अकेला गुनेहगार नहीं किसी का
तुम खुद ही फ़ैल हो गए मदरसे में दाखिला लेके
मुझे नहीं चाहिए थे तुम्हारी मेहेर्बानियाँ
एक को छोड़कर तमाम के एहसान उठाते
मर गया मैं दुनियावालों से यह कहके
बहुत गुलज़ार किया मेरे कमरे में बैठकी लगा के
मैं फिर-फिर आऊँगा दुनिया में लौट के
तुझसे निपटने कुत्ते की बोली बोलने वाले
तुम्हारी कसम थी मेरे को न हाथ लगाने की
मैं जनता था वह न बैठेगा चुप कपालक्रिया कर के
गोया आशना थी वोह मेरी रहो-रग से
मर गया मैं मैं आई भी तो तेरही में आग लगाने
मैं समंदर किनारे भी प्यासा ही रहा 'रतन '
जबकि गंगा बहती थी मेरे घर से हो कर के
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Tuesday, May 25, 2010
अपराध बोध
जिसे फांसी की सजा
सुना दी जाए
और वह एक खामोश
सन्नाटे से भूल जाये
जो चीत्कार भी न कर सके
उसका गुनाह क्या है
मुझे नहीं मालूम
लोग कह रहे हैं
वह यकीनन सजा का
हकदार है
कोई कह रहा है
फांसी की सजा छोटी है
उसे भीड़ के हवाले
कर दिया जाये अब तो आखिरी
ख्वाहिश पूची जाएगी
पता नहीं ख्वाहिश
वो क्या बतायेगा
जिसे अपने गुनाहों
का अफ़सोस भी नहीं
मेरी सजा फांसी से
भी बड़ी थी
जुर्म था सिर्फ यही ---
की ज़िन्दगी भर मैंने
मक्खी मारी थी
जो कुछ किया था
सिर्फ जुबान से किया था
पर आखिरी दम
मैं प्रायाच्छित भी
न कर सका
अपने गुनाहों का
शायद मैं बेहोश था
और वेंतिलाटर पर
रखकर
चार घंटे बाद
मार दिया गया
हर किसी ने किनारा
कर लिया था
मेरी लाश को
कन्धा देने को
चार लोग भी
पूरे न हुए
एक खामोश सी भीड़ थी
जो मेरी चिता से
फलांग भर दूर कड़ी थी
मैं आँखें मूंदे
सिर्फ जलन महसूस
कर रहा था
फूल पर ख़ाक डालने
वाले सिर्फ तीन थे
और बाकी
जिन्होंने सिर्फ अपनी
इज्ज़त बचने के
लिए मुझ पर
पैसा लगाया था
वो भी मुझको
गालिया दे-देकर
ज़िन्दगी भर मेरे साथ
उन्होंने पोलिटिक्स
के सिवा कुछ न किया
और अभी भी ---
मुझे जलता देखकर
परस्पर पोलिटिक्स कर रहे हैं
अब मेरे लिए उनके
पास पैसा नहीं है
और न ही इज्ज़त
जाने का अपराध बोध
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निजात
जिन्दगी से निजात मिली
जैसे किसी को
मौत के बाद हयात मिली
हर कोई जाता है खाली हाथ
मुझे मौत के बाद कायनात मिली
जिन्दगी भर चला नंगे पाँव
खिली धुप में
मरने के बाद मुझे सुकून
की ठंडी छाँव मिली
दिन भर लोगों को
'गुरु वचन' सुनाता रहा
ठन्डे दिमाग से सोचने को
'रतन' अँधेरी रात मिली
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Sunday, April 4, 2010
ये किसी ने क्या किया ..!!!!!!!!
वीरान हो गयी ,
छोड़ गए सफ़र मे साथ क़ि कश्ती
तूफ़ान हो गयी ।
उसको मनाने की गरज थी,
मनाया भी खूब ।
हाल_ए_दिल सुनाना था उनको,
सुनाया भी खूब ।
मगर न उनको रुकना था
न सुनना था ।
लाख कसीद को भेज_भेज
कहलवाया भी खूब ।
प्यार की मंजिल बेरुखी ही
अंजाम हो गयी ।
छोड़ गए सफ़र मे साथ की कश्ती
हवाले तूफ़ान हो गयी ।
दुनिया एक नयी बसाने के लिए
दी थी सदा उन्होंने ,
एक दुसरे का होने की
दी थी रजा उन्होंने ।
कभी हम राह_ए_वफ़ा से गुमराह
भी हो गए थे ,
तब खफा ही रहने की दी थी
सज़ा उन्होंने।
उनके ही याद मे देखो सुबह
से शाम हो गयी ।
छोड़ गए सफ़र मे साथ की कश्ती
तूफ़ान हो गयी ।
बहारें भी चली कुछ रोज़
गुलज़ार_ए_इश्क मे
यूँ ही रवानी कुछ रोज़ कलि के
गुल_ए_रुख्शार मे।
एक भ्रमर ऐसा आया छीन ली
कलियों की लाली
वो भी चली गयी दूर कहीं फूलों के
इस व्यापार मे ।
बहार ये मेरी मौत का
सामान हो गयी।
छोड़ गए सफ़र मे साथ की कश्ती
हवाले तूफ़ान हो गयी ।