Wednesday, August 25, 2010
साकी और वो ...........!!!!!!!!!
मैं बैठा हूं प्यासा महफ़िल में छलक रहे पैमाना ।
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अभी मेरा जाम मत भरो
मैं तौबा दुहरा रहा हूं ।
किसी ने दी थी अपनी कसम
यही सोच कर घबरा रहा हूं ।
साकी तेरा ख्याल भी है
मयकदे से प्यार भी है
मदहोश होने को जी चाहता है
मगर किसी से इकरार भी है ।
तू सागर से पिलाएगी
वो निगाहों से पिलाते हैं
क्यों फिर वादा खिलाफी सिसकियो
जामे हक वो बार_ बार पिलाते हैं ।
सदा आबाद नहीं रहेगा तेरा मयखाना
जब तक तू है तभी तक तेरा ज़माना
जिस दिन गैरों को पिलाएगी
भूल जाऊँगा मैं अह्दो पैमाना ।
माना मशहूर तू जमाने मे
नहीं है कोई तेरा सानी
पल भर में तोला पल भर मे माशा
काट ले तो कोई मांगे न पानी ।
कभी थिरकती तू नाजो अंदाज़ से
देखती है मुझे नज़रे ख़ास से
सितम भी करती हो गैर के डर से
डर जाता हूं मुहब्बत के अंजाम से ।
तेरी सिसकियो का
मुझ पर कोई असर नहीं
जवानी मयकदे मे हुई है
हमेशा बसर नहीं ।
ये माना तेरी गली का
रास्ता बाद मे पकड़ा
पर उसको इस बात की
दी कभी खबर नहीं ।
तू सरे बज़्म छनकाती
है पायल
और दिल को मेरे कर देती है
घायल ।
अछे अछे तेरी महफ़िल
में हो जाते हैं पागल
कोई जिसे पी न पाया
आज तलक
वो कुछ इस तरह की
है सागर ।
ख्याल उसका आता है
तो सब कुछ भूल जाता हूं
कैसा होश और कैसा नशा
प्यार के हिंडोले मे झूल जाता है ।
छोड़ मेरा अब ख्याल
ऐ साकी ऐ मैखाना
अहद न टूटने पाए
कर ऐसा कुछ बहाना ।
मेरी पलकों पर दस्तक देती
उसकी नज़र
इनायत तेरी और भला
उसको न हो खबर ।
नावाकिफ नहीं वो अगर
तेरे नाम से
ये है कुछ मेरी कलम
का असर ।
आज भी गर तू पिलाएगी
क्या कहूँगा सरे ज़माने से
लाख करे तू फिकरो जातां
आएगा उसका नाम तेरे फ़साने मे ।
मैं महबूब शायर हूं उसका
पहला पहला प्यार हूं उसका
पहले अजनबी थी अब यकीन
क्या करून तिरस्कार उसका ।
तू सबकी है और सबका
तेरा मयखाना
सबको मिलता है यहाँ
बादाओ पैमाना ।
जाने क्यों बदगुमान था
अब तक
अता किया तुमने मुझको
दिल नजराना ।
तेरे मयखाने मे सबका
हिसाब चलता नहीं
मुझे भी मुफ्त यहाँ
कभी मिलता नहीं ।
मैंने भी ग़ालिब बनाने
की सोची नहीं
मेरा भी कोई रास्ता
तकता है कहीं ।
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पुछा जो उनसे तुम्हे हमसे
नफरत है या मुहब्बत
किये जाओगे सितम ही
या दोगे कभी कुछ उल्फत
हंस के फरमाने लगे वो
कह दू तो तुम्हे आ जायेगा सुरूर
कह दूं नफरत फिर भी
दिल तुम्हारा तडपेगा ज़रूर !!!
उसूल ..........!!!
इलज़ाम किसी और पे जाये तो अच्छा ,
मैं भी बदल जाऊंगा , बदल दूंगा उसूल
न लूँगा अपने सर इलज़ाम किसी का ।
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ये क्यों हम लोग उसूल बनाते रहते हैं
और जिंदगी भर उनको संभालते_ संभालते मर जाते है ।
क्या वे ज्यादा सुखी हैं जो उसूल बदल देते हैं
और मौका पड़ने पर गधे को बाप स्वीकारें ।
लोग अपने उसूल के लिए क्या नहीं करते
जान जाए पर उसूल से नहीं समझौता करते ।
हम इस तरह उसूल निभा रहें हैं गोया
किसी तरह अपने कंधे पर अपने को dho रहें हैं ।
हम ने ही हर किसी पर आँख मूँद विश्वास किया
असल मे जिंदगी भर सापों को दूध पिलाते रहे ।
हमारा विश्वास करे न कोई हो सकता है
अब हम भी किसी दिन अपना उसूल बदल दें ।
और सापों को काट ले तो पानी भी न मांगे
सापों को घर से निकलने को आस्तीन फाड़ लेंगे ।
क्या उसूल सदा अछे ही होते रहे हैं आज तक
उसूल पर चलने वालों ने अपनी आँखें fudwa ली ।
क्रोस पर चढ़ गए चमड़ी भी अपनी udhadwaa ली
पर उसूल नहीं बदला भले जान ही दे दी ।
हम सोचते हैं उसूल का मतलब क्या होता है
जो अपनी oar आते हुए तीर के लिए ढाल भी न उठाये ।
अहिंसा परमोधर्मः कह कर गला क्यों कटवाया जाये
इससे तो अच्छा है 'रतन' दुश्मन से दूर_ दूर रहे ।
Saturday, August 14, 2010
मैं शायर तो नहीं बस !!!
शाम के धुंधलके में
चाय के प्याले के साथ
सनम के रूबरू
यूँ तो कभी लिखा करता हूं ।
किसी की बेताब तमन्नाओं
छलकते आँखों के जाम
उनके ढलते आँचल
बजती पाजेब
यानि उनकी हरकत पे
कभी कभी लिखा करता हूं ।
बहुतो ने पुछा, समझा
ये राज़ जानना चाहा
कैसे मैं लिखा करता हूं
क्यों लिखता हूं
क्या मेरे दिल मे भी
लगी है किसी हसीना से चोट
मैं क्या कहूं
लोग इतना भी नहीं समझते
दिल होते हुए भी
जज्बात नहीं पहचानते
अरे मैं कोई प्रेमी नहीं
मैं तो बस तेरी सदा पे
लिखा करता हूं ।
मैं कोई शायर तो नहीं
बस ! ' जबसे देखा तुमको
मुझको शायरी आ गयी '
तुमने तो देखि होगी
वही फिल्म 'बौबी '
ज़माने के बंधन तोड़
मिले दो प्रेमी कहाँ
झील में .....
गए थे ज़माने की
गर्दिशो से हैरान हो कर
ख़ुदकुशी करने ......
ज़माना जो दीवार बना था
उनका हमदर्द बन गया ।
इसलिए तो कहता हूं
आओ हम तुम भी कोशिश करें
एक बार घर छोड़ कर भागें
एक बार झील में कूदें
थोडा हल्ला मचे
थोडा दुनिया स्वांग रचे
फिर गर्दिशो से टकरा कर
हम एक दुसरे के 'वो' बाने।
सच ! बड़ा प्यारा लफ्ज़ है 'वो' भी
कितना अपनापन, कितना अहसास
नज़दीक मे सुनाई पड़ती है
उनकी साँसों की उसांस
दिल का दिल से मिलन होता है
रातें जब बेकल होती हैं
दिन बीत जाता है उदास उदास
सच ! वो का भी बड़ा काम है
दुनिया में बड़ा नाम है
भाभी से कहा
चलो देखे फिल्म
बोली नहीं जाइए
देख आइये आप
नहीं तो मान जायेंगे बुरा 'वो'
सच ! 'वो' में ही अपनापन है
हमारा क्या हम तो गैर हैं
हर बात में बतायेंगी वो
आएंगे वो तो जायेंगे
दार्जिलिंग हम
जायेंगे शिमला
और मनाएंगे हनीमून
काश ! हमारा भी होता कोई ।
भाभी कहती 'चलो
घूम आयें बाज़ार '
हम कहते 'अरे नहीं भाई'
मान जायेंगे बुरा हमारे 'वो '
तब शायद 'वो का 'वो' से
बराबर का रिश्ता होता
जहाँ दिलाते वो
'वो' का अहसास
और हमसे करते
गैर सा बर्ताव
हम भी कहते
हमारा भी है कोई वादा
हमको है उनके साथ जाना
सच बड़ा बढ़िया होता
यह जवाब
उनको होता बोरियत
का अहसास
बेहिसाब
फिर कभी न कहते
जाइए देख आइये फिल्म
हम तो समझते हैं
शायद करते वादा
अगली फिल्म का
किसका ?
शायद किसी अंग्रेजी फिल्म का
आज कल तो उसी का बोल बाला है
जो मतलब समझ ले ठीक
न समझे तो भोला भला है
बस क्यों लिखता हूं ।
कभी कभी उनके भोलेपन पे
लिखा करता हूं
उनकी बेहिसाब
तमन्नाओं पे
लिखा करता हूं
मई शायर तो नहीं
बस.........................!!!
Sunday, August 8, 2010
patthar se na maaro.... !!!
सुनकर तेरा इनकार ।
सुना था ऊँचे महलों मे
रहने वाले होते हैं ,
ठिगने और छुद्र विचारों के ।
पर मेरी कुटिया ही अब
धराशायी हो गयी है ।
और मैं सोचता हूं
मैंने ऐसा क्या लिख दिया
तुम मान गए बुरा
और मांगने लगे बलिदान ।
बुद्धि दौडाता हूं पर ,
अपने को विवेकहीन
और संज्ञाशून्य पाता हूं ।
मुझ पर भारी पद रही
तेरी हर फुफकार ।
अपनी कलम से विवश हूं
ये कभी नहीं मानती हार ।
और मेरे मन और आत्मा
के संघर्ष में भी
अभिव्यक्त कर देती है
मेरे भाव ।
फिर भी स्नेह त्वरित हो
तुमने प्यार की गढ़ ली कुटिया ।
धर पत्र पवित्र कर दो
भूल की सारी त्रुटियाँ ।
अब न तुमसे कोई
सवाल करूँगा
जानता हूं झूठें हैं
सारे रिश्ते नाते
झूठा जगत का व्यवहार ।
खल रहा स्वयं को अब
अपना ही उत्कर्ष ,
पर्वतों की छोटी पर
जाना छोड़ ,
अब समुद्र की गहराई
मापने की बात करूँगा ,
और अपने अन्तस्थल मे
कोई नया प्रतिबिम्ब
न उभरने दूंगा
यह भीष्म प्रतिज्ञा विकराल ।
देख कर तुम्हारा भीषण सत्कार
यूँ लगा जैसे अंधे को
अर्पण आईना कर दिया हो ।
बाजू कटवा लिए
ताजमहल तामीर कर के ,
फिर तोहफे मे
हीरे की अंगूठी पाकर
कुछ ऐसा लगा
सूरत से हो शबनम
सीरत से हो चिंगारी ,
हम गर्दन झुका कर आये
तुमने निकाली आरी ।
काश !
मेरा दिल मोम सा न होता
और न तुम हौसला रखते ,
पत्थर से वार करने का
क्या यही था अंतिम सत्य
जीवन का निषकर्ष ।
सदीयाँ बीत गयी
शायद किसी ने कहा हो
जमाने से ,
पत्थर से न मारो
मेरे दीवाने को !!!
Sunday, August 1, 2010
तनाव........!!!!!!
क्या मृत्यु के बाद भी होता है तनाव
उत्तर यही है यह शाश्वत है बिलकुल अटूट ,
मृत्यु के बाद किसी भी कर्मभोग योनी मे
जन्म लेने के बाद भी होता ही है ।
असामयिक मृत्यु के बाद भी दिगंत
मे भ्रमति आत्मा को रहता है तनाव ,
इससे छुटकारा योगियों तपस्वियों ने पाया
पर समयकाल के आगे यह अल्पकालिक है ।
मुक्ति के बाद भी यह फिर फिर होता है
शश्वत मुक्ति नाम की कोई चीज़ नहीं है ,
वर्तमान समय कलह के वातावरण मे ही
हर कोई है तनावग्रस्त क्या चार क्या अगोचर ।
कोई बेटे से परेशां तो कोई बेटे के लिए
कोई नौकरी से परेशान तो कोई नौकरी के लिए ,
मुझे समझ नहीं आता है क्यों हर कोई तनावग्रस्त
इससे पार होने की कला आज तक मैं जान न पाया ।
हर कहीं हर किसी से यही सुनने को मिलता है
मैं अमुक के लिए परेशान तो अमुक अमुक के लिए ,
मुझे समझ नहीं आता है क्यों हर कोई तानाव्ग्रसित
इससे पार होने की कला आज तक मैं जान न पाया ।
धारणा ध्यान समाधि करके भी नहीं पाया विकल्प ,
यह चतुर्दिक है और न ही इसका कोई और _छोर ।
सदा से व्याप्त है मानव मष्तिष्क मे
सभ्यता के विकास के साथ यह हुआ और विकसित ।
मेरे बुजुर्ग लालटेन की रौशनी मे पढ़ते थे
और हम बिजली के युग मे भी नहीं है तनावमुक्त ,
समस्या और बढ़ी है कम होने की बजाय
कल बैलगाड़ी से चलते थे आज विमान गिराते बम ।
असहायों निर्बलों के रक्त से धरा बन रही उर्वरा
रोम यूनान की संस्कृतियाँ मिट गयी , अपनी जीवित लाश
दारोमदार किस पर मुगलों पर की अंग्रेजो पर
मुग़ल औरंगजेब पर या अंग्रेज लोर्ड मैकाले पर ।
हिन्दुओ को किसी ने मुसलमान होने को विवश किया
तो अंग्रेजियत फैली हर भारतीय बना काला अँगरेज़
समाधान होता हर समस्या का पर जुबां है खामोश
मेरे ही रक्त सम्बन्धी मुझी से लेंगे इसका प्रतिकार ।
किसी भी अभियान से पहले यह बहुत ज़रूरी है
तनावमुक्ति के लिए अभियान चलाने का धंधा
हर कोई ग्रसित है चाहे घर हो या बाह्य समाज
कोई नहीं मुक्त इससे चाहे वो हो खुदा का बन्दा !!!
अफ़सोस .........!!!!!!!!!!
मुझे सवारा गया ,
इसके पहले कुछ जवाब दे पाता
मुझे अर्थी पे सुलाया गया ।
सब कुछ हो गया बस किसी तरह
जानी_अनजानी खता मुआफ
राम जाने किसकी मर्ज़ी से मुझे बाहर
का रास्ता दिखाया गया ।
सभी कन्नी काट रहे थे पर चिल्लाहट
से दिल दहला रहे थे ,
किसी की आँख से एक बूँद आंसू भी
मेरे लिए गिराया न गया ।
एक तो हम पहले से मजबूर थे
समझौता न कर सके ,
हालात से , मकरोफं से किसी तरह
रिश्ता न निभाया गया ।
चन्दन की लकड़ी की ख्वाहिश पूरी ,
न करवा सके जब ,
मेरे अकेले को पांच की जगह
दस मन तुलवाया गया ।
मुझे गंगा किनारे ले जा कर जबरदस्ती
चिता पे सुलाया गया ,
भाद _भूजो se चने मटर की तरह
बावस्ता भुन्वाया गया ।
लपटें उछल रहीं थी धुंआ हवा के
साथ साथ उड़ा ,
तीन लोग घाट पे एक हुजूम था
टीले पर दूर खड़ा हुआ ।
सब मुझ पर अपने अपने झूठे
अहसान गिना रहे थे
मैं भूना जा रहा था अंगारों मे ,
तब्दील होता रहा
तीन दिन के कार्यक्रम को तेरह ,
दिन तक खींचा गया
रोज़ पानी पडा, दिया बात्ती होती रही ,
घाट था बंधा हुआ ।
जो हुआ सो हुआ पर अफ़सोस
मुझे हुआ बस
जहाँ पैदा हुआ उस सरजमीं पर
क्यों न गाड़ा गया ।
समाधि न बनवा पाने की चाहत
कसकती रही 'रतन'
इसी बहाने कोई चुपके से आकर
दो फूल तो चढ़ा जाता !!!