Sunday, August 26, 2012

vyatha (marhoom bhai se mukhatib)

 व्यथित मन थकित बदन 
कितनी पीड़ाओं का अन्तर्द्वन्द      
अंतर्मन रीता  पर प्रतिबिम्ब  प्रकटित  
ज़िन्दगी ठहर  कर हुई सीमाबद्ध 
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तुम क्या गए दिल पहलू से जुदा हो गया
तुम थे तो जहाँ अपना  था,अपना अब कुछ न रहा    

ख्वाबों में  मिलते   भी हो  तो  खामोश       
क्या अब कोई  से गिला -शिकवा न रहा 

कुछ तो कहते,कुछ नहीं  तो तुम बिन   कैसा हूँ     
ये पूछते या  उसी अदा से  फिर देते गालियाँ    

जैसे सहा सबको,तुमको भी सहता ही था
सारे तुम्हारे अपने थे ,मैं ही था तुम्हारे लिए पराया 

सारे जहाँ का दर्द समेटे ,ज़िन्दगी भर कराहते रहे
अपना कौन था मेरे सिवा,मुझसे भी न किया समझौता  

एक बात  तो तय थी कि तुम थे स्वतंत्र  ,मैं उसूलों से जकड़ा हुआ      
क्या कुछ नहीं सहा मैंने ,पर समझौता उसूलों से न किया
   
आलम  अब ऐसा है :- संसार सरक रहा है और   मैं 
उसके साथ महसूस कर रहा खुद  को घिसटता  हुआ 
    
न कोई ख्वाहिश ,न कोई तमन्ना  है,न कोई आरज़ू  है 
अफ़सोस सिर्फ ये है ,क्यूँ ज़ुल्म ज़माने भर का सहा

जो हो न सका कभी किसी  का,उसी में जी रहा हूँ 
सारे अहबाबों और रिश्तेदारों  से बिलकुल  कटा हुआ 

जो मिलता है मुझसे ,  वह मेरी गैरत  को ललकारता  है
चुपचाप अब तो तुम्हारी तरह रहता  हूँ खुद से डरा हुआ 

जुल्मी दुनिया ने किसकी कब परवाह की है 
तुम जवानी में ठगे गए ,मैं बचपन का ठगा हुआ 

चाहता नहीं हूँ कभी किसी का अपने से सामना हो 
करने बेईज्ज़त और बदसलूकी ही जो भी  आता  है यहाँ 

इसीलिए तो शादी में भी अकेला था ,चारों ओर भीड़ थी 
मैं भी खामोश था,तुम भी खामोश थे ,मैं कोने में सिमटा रहा 
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