जब कोई अपनापन जताने लगता है , 
दिल मे मेरे शुबहा गहराने लगता है । 
बाद मे वही दुश्मनी निभाने लगता है , 
जिस पर अपना दम निकलने लगता है । 
हम तुम्हे ही चाह कर भी क्या करते 
बेदखल_ए_  बज़्म करने को चाल कोई चलने लगता है । 
मंज़र देखे ऐसे ऐसे अपनी नज़र ने 
एक दूजे के लिए हरेक पराया लगने लगता है । 
तिलस्म सी लगने लगी अब तो दुनिया, 
कभी कभी तुम्हारा  फंसूं सुहाना लगने लगता है । 
कारीगरी भी उस कारसाज़ की देखी , 
हरेक उलमान ठिगना लगने लगता है । 
यहाँ मय छोड़ी, आरज़ू_ए_वस्ल छोड़ी , वहाँ, 
शराब का दरिया हूर का जिस्म दमकने लगता है । 
अपना कहूं भी तो किसको कहूं अब तो , 
जो मिलता है दिल पर खंज़र चलाने लगता है । 
इरादा तो न था करूँ गुहार खुदा से भी , 
जबकि खुद_बा _खुद जलजला उठने लगता है । 
हम क्यों कहें किसी को दुश्मन भी अपना, 
जब ऐरा_गैर नत्थू खैर दोस्ती जताने लगता है । 
हम चाक गरेबान हो गए तो ख़याल ये आया , 
कौन सा गद्दार मेरे फ़साने मे टांग अडाने लगता है । 
महशर भी देखेंगे और तुम को भी अहल_ए_सितम , 
अहसास ये दिल को दुखाने लगता है । 
तर्क_ए_वफ़ा तुम करो और इलज़ाम आये हमपे 
इकरार तेरा दिल को रुलाने लगता है । 
मकरोफान तुम्हारे तुम्हे ही ले डूबेंगे 
समंदर मे नाव, पतवार पुराना लगने लगता है । 
कब इस जलते दिए पर न पड़ी ठंडी फुहारे, 
अब वही फिर से बरसने लगता है । 
कायनात भर मे सदा जो धड़कन बन के रहा , 
वही खुदा अब अपना रफ़ीक लगने लगता है । 
हम न भूलेंगे तुमको भले तुम बदल जाओ, 
ताज के आगोश में जब दरिया लहराने लगता है । 
नाज़ था जिसको सर पे उठाएंगे दुनिया , 
वक़्त_ए_रुखसत वो हाथ छुडाने लगता है । 
और क्या कहे तुमसे ही 'रतन'की सनम, 
कोई मुर्शिद जिन्नात की सूरत सताने लगता है । 
Wednesday, June 30, 2010
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