गुलाबजल , इतर, फुलेल से पहली बार 
मुझे सवारा गया , 
इसके पहले कुछ जवाब दे पाता 
मुझे अर्थी पे सुलाया गया । 
सब कुछ हो गया बस किसी तरह 
जानी_अनजानी खता मुआफ 
राम जाने किसकी मर्ज़ी से मुझे बाहर 
का रास्ता दिखाया गया । 
सभी कन्नी काट रहे थे पर चिल्लाहट 
से दिल दहला रहे थे , 
किसी की आँख से एक बूँद आंसू भी 
मेरे लिए गिराया न गया । 
एक तो हम पहले से मजबूर थे 
समझौता न कर सके ,
हालात से , मकरोफं से किसी तरह 
रिश्ता न निभाया गया । 
चन्दन की लकड़ी की ख्वाहिश पूरी , 
न करवा सके जब , 
मेरे अकेले को पांच की जगह 
दस मन तुलवाया गया । 
मुझे गंगा किनारे ले जा कर जबरदस्ती 
चिता पे सुलाया गया ,
भाद _भूजो  se चने मटर की तरह 
बावस्ता भुन्वाया गया । 
लपटें उछल रहीं थी धुंआ हवा के 
साथ साथ उड़ा , 
तीन लोग घाट पे एक हुजूम था 
टीले पर दूर खड़ा हुआ । 
सब मुझ पर अपने अपने झूठे 
अहसान गिना रहे थे 
मैं भूना जा रहा था अंगारों मे , 
तब्दील होता रहा 
तीन दिन के कार्यक्रम को तेरह , 
दिन तक खींचा गया 
रोज़ पानी पडा, दिया बात्ती होती रही ,
घाट था बंधा हुआ । 
जो हुआ सो हुआ पर अफ़सोस 
मुझे हुआ बस 
जहाँ पैदा हुआ उस सरजमीं पर 
क्यों न गाड़ा गया । 
समाधि न बनवा पाने की चाहत 
कसकती रही 'रतन'
इसी बहाने कोई चुपके से आकर 
दो फूल तो चढ़ा जाता !!!
Sunday, August 1, 2010
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