Saturday, October 11, 2025

गुजारिश( कविता)

एक तवील और तल्ख मुहब्बत के अफसाने को,
                            तोड़ा-मरोड़ा भी जा सकता है/
इससे बेहतर तो सदियों की कड़वाहट को एक लफजे-
                             जुंबिशे- लब से समेटा भी जा सकता है//

तुझसे संभलते नथे नाजो- हुस्न, पैकर था शबाब पे,
चाँद-तारे बिछे जाते थे कदमों में, रिदा बिछा के,
बैठते थे हम तुम जमुना किनारे की खाली बेंच पर,
आ धमकती थी चाँदनी भी, तेरी सूरत सँवार के/
सब कुछ हासिले मस्त था, चमन की न कोई दुश्वारी थी,
बागबाँ था बेखौफ, किस अंदाज से क्यारियाँ सँवारी थीं,
महफिले- नाज में दो कबूतर परस्पर गुटरगूँ किया करते थे,
हम भी खुश होते थे रोज तेरी पालकी गगन से उतार के/
मुफलिसी का दौर कभी आड़े न आया, हमारे तुम्हारे प्यार में,
बुलबुलें चहकती थीं बाग की, तेरे इंतजार में,
समंदर की मौजों से सरोकार रखते थे,
कश्ती पे तेरे जाँनिसार करते थे,
किस कदर कलियाँ खिली थीं, कैसा बाग का नजारा था?
कोई प्यार का दुश्मन कहीं भी तो न हमारा था,
मोहब्बतों का दीप जलाए, रोज आतिशबाजी करते थे,
तेरे साथ का मौसम खुशगवार था, सूखी घास पर मस्ती करते थे

एक छोटी सी, मासूम सी अर्जे मुस्कराहट की ही तो तमन्ना
                                                         मैंने की थी/
एक तवील और तल्ख मुहब्बत के अफसाने को
                                             तोड़ा-मरोड़ा भी जा सकता है//

बेखुद हुए थे तुम खुद ही, मुहब्बत की निशानदेही पर,
अपने अपने न हुए, पराए तो पराए ही थे,
मुहब्बत को रिवाजों में कसने की कोशिश थी उनकी,
पर हम तुम तो एक ही डाल के दो पंछी थे/
इरादा किसी का काम न आया, थे आजाद हम ख्यालों से,
सतर्क रहना पड़ता था हमेशा अपने ही निगहबानों से,
अलगाव मुहब्बत न तुझे मंजूर था, न मुझे ही,
डाल छोड़ दी, साधा निशाना जब निशानबाजों ने/
सोचा- समझा अहले- दुनिया ने, क्या सोचा था क्या हुआ?
हासिले खलक कुछ न हुआ, बाज आए हम भी जमाने से,
हुशियार न थे अहले दनिया, बाँध न पाए रस्म-रिवाजों में,
बेखौफ थे हमेशा, न डरते थे, मुहब्बत के अडंगेबाजों से/
एक मुहब्बत की दुनिया कायम थी, छोटे से नशेमन में मेरे,
हम समंदर की कसम खाते हैं, तेरे सिवा दूसरा न था हमारा,
तुमसे रूठ जाने को कभी सोचा भी नथा, दूर क्या जाते,
अहले दुनिया समझेगी क्या, तू तो जानती थी इरादा हमारा/

हो के बेखौफो- खतर एक बेजुबान मुहब्बत को दिल में
                                                उतारा भी जा सकता है/
तक तवील और तल्ख मुहब्बत के अफसाने को तोड़ा-
                                                  मरोड़ा भी जा सकता है/

सूरतेहाल सँवारने को तुझसे मशविरा मेरा ये है,
हम तुम परस्पर दो सितारे कहकशां के जेरे- साया रहा जाए,
तेरा तवारूफ मुझसे हो, तेरी निगहबानी मेरी हो,
ये खूबसूरत वादियाँ मुहब्बत की सदा सदाबहार नहीं रहतीं/
परकटी और उरियाँ हो जाती हैं, मौसमे-खिजां में ये भी,
मौसमे- बहार आने पर, हम तुम फिर-फिर मिलते रहेंगे,
एक दूसरे का हाल कहेंगे- सुनेंगे, उसी के मुताबिक,
वक्ते- सैरे- गुल्शन में साथ- साथ हम तुम नजर आएँगे/

मुहब्बत के अफसाने में जमाने को इक हद तक हिस्सेदार
                                                    बनाया भी जा सकता है/
एक तवील और तल्ख मुहब्बत के अफसाने को तोड़ा-
                                                     मरोड़ा भी जा सकता है//

                    राजीव रत्नेश
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