Sunday, August 17, 2025

जिस पर रतन का हक था( कविता)

जिस पर रतन का हक था( कविता)
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प्यार में तो मर जाना भी अच्छा,
बिना प्यार आखिर जीना क्या?

नजर में अक्स तो तेरा ही है,
तेरे सिवा दूसरा ठिकाना क्या?

तू ही थी मेरी भी आरजू,
किसी और से दिल लगाना क्या?

समंदर की लहरें भी शांत हो गईं,
अब मेरी तरफ से तूफान उठाना क्या?

तसब्बुर में मेरे ताज का अक्स था,
चाँद फीका पड़ा, चाँदनी में तेरा नहाना क्या?

हम तो मस्त बादे- सबा हैं गुलजार के,
कली का भ्रमर से अब शरमाना क्या?

तेरा निशाना ही जब सय्याद हो,
मना करने को पास मेरे बचा क्या?

किसी ने लिख दिया मैकदे की दीवार पर,
कमजर्फ को शराब पिलाना क्या?

जो डूब चुका हो लबरेज जाम में,
उसे लाद कर घर अब लाना क्या?

मुहब्बत की बारीकियाँ तू ही जाने,
तेरे बिना मेरी मुहब्बत का अफसाना क्या?

साकी जाने न जाने, मदहोश थे सारे रिन्द,
पैरों- पै रों जाकर, पैरों- पैरों लौट आना क्या?

तिकड़म साकी ने लगाई बहुत पिलाने को,
पर नाहक की पीना मुझे गँवारा क्या?

जब तेरी मस्त- मदमस्त आँखों से पी लिया,
फिर नशे का कयामत से पहले उतर जाना क्या?

मैंने आज तक किसी को बेवफा न कहा,
किसी का वफा का सबक मुझे पढ़ाना क्या?

" ताज" को ही अपने दैरो-हरम में बसाया,
जिस पर" रतन" का हक था, उसे ही बनाया अपना//

              राजीव रत्नेश
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