Saturday, November 15, 2025

मुझसे भारी मेरा बस्ता--- लेख का शेष अंश

" मुझसे भारी मेरा बस्ता" लेख का शेष अंश
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
स्वामी विवेकानंद देश की धर्मपताका फहराने अमरीका गए थे/
               आधुनिकता के नए परिप्रेक्ष्य मे युवक-युवतियाँ अपनी हानि को भी लाभ मानने के लिए मानसिक तौर पर पंगु हो चुके हैं/ ब्रहम्चर्य का पालन किसी से नहीं हो पा रहा है, जो कि अर्वाचीन भारत की पहली अनिवार्यता है/ सर्वत्र झूठ का
बोलबाला है/ वायदे तक झूठे किए जाते हैं/ पहले के लोग वादा निभाने के लिए अपनी जान तक दे देते थे पर अब समय बदल गया है, जो जितनी बड़ी वादाखिलाफी कर सके वो ही सबसे बड़ा नेता/
               क्या हम- आप अपने बच्चों को इसकी वास्तविकता से परिचित करा कर, उन्हें मानसिक रूप से परिपक्व बनाने में
ऋषि- महर्षियों के दिए गए मूलभूत सुझावों को आत्मसात करेंगे और टी० वी० और मोबाइल जैसे अनावश्यक और समय खाऊ संसाधनों से, कम से कम अपने बच्चों को, भविष्य में कुछ अच्छा कर गुजरने योग्य बनाने की महत्वाकांक्षा से राष्ट्र को अनुग्रहित करेंगे/ समाज आपके ही इंतजार में टकटकी लगाए आपकी ओर देख रहा है कि आप एक कदम इस दिशा में आगे
बढ़ाएँ तो लाखों कदम आपके पीछे निकलेंगे/
               हमारे-आपके बच्चों में भारी बस्ते के कारण कमरदर्द, रीढ़ की हड्डी का आगे की ओर झुकाव तथा कंधे में दर्द की
असह्यता परिलक्षित हो रही है, जो बचपन की पढ़ाई से लेकर नौकरी की उम्र तक तथा आगे भी कंधों पर लैपटाप, टिफिन,
किताबें- काँपियाँ तथा पानी की बाटल, बस्ते में लाद कर, जूतों के फीते कस कर, पूरी तरह से लैस होकर हमेशा चुस्त-दुरुस्त
बने रहना क्या संभव है? अब तो शुद्ध पानी भी बाटल्स में कैद है और बिकाऊ है, जो सबके लिए सहजता से प्राप्त नहीं है और साधारण पानी बीमारियों का गढ़ है/ हमारा कर्तव्य है कि उन्हें शुद्ध वातावरण उपलब्ध करायें और प्राकृतिक छटा से
उनका संबंध जोड़ें/
                 अमेरिका जैसे विकसित देश में बच्चे दवाई चने- मूँगफली की तरह खाते हैं/ सुबह, शाम तथा रात की दवाई की
पुड़िया उनकी जेबों में रहती है/ अपेक्षाओं के कारण वे मनोरोगी हो जाते हैं और कम उम्र में ही साइकेट्री के शिकार हो जाते हैं/ हमको चाहिए कि शिक्षा को स्फूर्तिदायक, आनंददायक और व्यवहारिक बनाने की दिशा में स्वयं भी अग्रसर हों और दूसरों
को भी आगे आने के लिए प्रेरित करें/
                  हमें अपने व्यस्त समय से थोड़ा समय बच्चों को भी देना चाहिए, क्यूँकि वे ही देश के भावी कर्णधार हैं/ हमें सोचना चाहिए कि उनके" कंधों का बोझ वह भारी बस्ता" बच्चों को मुक्त उड़ान भरने के लिए पंख सुलभ करवा रहा है
अथवा उनकी सारी जागरुकता को छिन्न- भिन्न कर और ज्यादा जमीन से बाँध रहा है/
                 विश्वास मानिए विकसित देश इस आधुनिकता से अब ऊब चुके हैं और शान्ति की खोज में वे" विश्वगुरु भारत" की
ओर उत्सुकता से देख रहे हैं/ हमारी संस्कृति हमें" वसुधैव कौटुम्बकम्" की प्रेरणा देती है और विभिन्न देशों के लोग ये जानते हैं कि विश्वगुरु भारत उन्हें अपना शिष्य बना कर आत्मसात कर ही लेगा/

   (८) उपसंहार( लेखक का विद्यार्थियों से अपील)
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
                  मुख्य बातें वही हैं, जो आपके अभिभावकों से बतला चुका हूँ/ मेरी आप सभी से यही अपील है कि अपनी पसंद को महत्व देकर आगे बढ़ें, इसी तरह आप सफल होंगे और स्मार्ट- फोन से फायदे कम नुकसान ज्यादा है/ मेरे पूरे लेख का
सार यही है, जिससे कदम गलत दिशा में भी उठ सकते हैं/ सिर्फ आप लोगों के लिए ही कवि ने पुकार लगाई है:--

                  पर्वत कहता शीश उठा कर, तुम भी ऊँचे बन जाओ,
            . :  
                  सागर कहता लहरा कर, मन में गहराई लाओ/

                 समझ रहे हो क्या कहती है, उठ-उठ, गिर-गिर तरल तरंग,

                 भर लो अपने जीवन में मीठी- मीठी मृदुल उमंग/

                 पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो, कितना ही हो सर पे भार,

                 नभ कहता फैलो इतना तुम, ढ़क लो सारा संसार//

                            जीवन में कुछ बन जाने पर अपने अभिभावक को भूल न जाना
                            उनका अपने जीवन में योगदान सदा-सर्वदा स्मरण रखना//

                                               राजीव" रत्नेश"
             .                         """""""""""""""""""""""""

मुझसे भारी मेरा बस्ता--- लेख का शेष अंश

" मुझसे भारी मेरा बस्ता" लेख का शेष अंश
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स्वामी विवेकानंद देश की धर्मपताका फहराने अमरीका गए थे/
               आधुनिकता के नए परिप्रेक्ष्य मे युवक-युवतियाँ अपनी हानि को भी लाभ मानने के लिए मानसिक तौर पर पंगु हो चुके हैं/ ब्रहम्चर्य का पालन किसी से नहीं हो पा रहा है, जो कि अर्वाचीन भारत की पहली अनिवार्यता है/ सर्वत्र झूठ का
बोलबाला है/ वायदे तक झूठे किए जाते हैं/ पहले के लोग वादा निभाने के लिए अपनी जान तक दे देते थे पर अब समय बदल गया है, जो जितनी बड़ी वादाखिलाफी कर सके वो ही सबसे बड़ा नेता/
               क्या हम- आप अपने बच्चों को इसकी वास्तविकता से परिचित करा कर, उन्हें मानसिक रूप से परिपक्व बनाने में
ऋषि- महर्षियों के दिए गए मूलभूत सुझावों को आत्मसात करेंगे और टी० वी० और मोबाइल जैसे अनावश्यक और समय खाऊ संसाधनों से, कम से कम अपने बच्चों को, भविष्य में कुछ अच्छा कर गुजरने योग्य बनाने की महत्वाकांक्षा से राष्ट्र को अनुग्रहित करेंगे/ समाज आपके ही इंतजार में टकटकी लगाए आपकी ओर देख रहा है कि आप एक कदम इस दिशा में आगे
बढ़ाएँ तो लाखों कदम आपके पीछे निकलेंगे/
               हमारे-आपके बच्चों में भारी बस्ते के कारण कमरदर्द, रीढ़ की हड्डी का आगे की ओर झुकाव तथा कंधे में दर्द की
असह्यता परिलक्षित हो रही है, जो बचपन की पढ़ाई से लेकर नौकरी की उम्र तक तथा आगे भी कंधों पर लैपटाप, टिफिन,
किताबें- काँपियाँ तथा पानी की बाटल, बस्ते में लाद कर, जूतों के फीते कस कर, पूरी तरह से लैस होकर हमेशा चुस्त-दुरुस्त
बने रहना क्या संभव है? अब तो शुद्ध पानी भी बाटल्स में कैद है और बिकाऊ है, जो सबके लिए सहजता से प्राप्त नहीं है और साधारण पानी बीमारियों का गढ़ है/ हमारा कर्तव्य है कि उन्हें शुद्ध वातावरण उपलब्ध करायें और प्राकृतिक छटा से
उनका संबंध जोड़ें/
                 अमेरिका जैसे विकसित देश में बच्चे दवाई चने- मूँगफली की तरह खाते हैं/ सुबह, शाम तथा रात की दवाई की
पुड़िया उनकी जेबों में रहती है/ अपेक्षाओं के कारण वे मनोरोगी हो जाते हैं और कम उम्र में ही साइकेट्री के शिकार हो जाते हैं/ हमको चाहिए कि शिक्षा को स्फूर्तिदायक, आनंददायक और व्यवहारिक बनाने की दिशा में स्वयं भी अग्रसर हों और दूसरों
को भी आगे आने के लिए प्रेरित करें/
                  हमें अपने व्यस्त समय से थोड़ा समय बच्चों को भी देना चाहिए, क्यूँकि वे ही देश के भावी कर्णधार हैं/ हमें सोचना चाहिए कि उनके" कंधों का बोझ वह भारी बस्ता" बच्चों को मुक्त उड़ान भरने के लिए पंख सुलभ करवा रहा है
अथवा उनकी सारी जागरुकता को छिन्न- भिन्न कर और ज्यादा जमीन से बाँध रहा है/
                 विश्वास मानिए विकसित देश इस आधुनिकता से अब ऊब चुके हैं और शान्ति की खोज में वे" विश्वगुरु भारत" की
ओर उत्सुकता से देख रहे हैं/ हमारी संस्कृति हमें" वसुधैव कौटुम्बकम्" की प्रेरणा देती है और विभिन्न देशों के लोग ये जानते हैं कि विश्वगुरु भारत उन्हें अपना शिष्य बना कर आत्मसात कर ही लेगा/

   (८) उपसंहार( लेखक का विद्यार्थियों से अपील)
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                  मुख्य बातें वही हैं, जो आपके अभिभावकों से बतला चुका हूँ/ मेरी आप सभी से यही अपील है कि अपनी पसंद को महत्व देकर आगे बढ़ें, इसी तरह आप सफल होंगे और स्मार्ट- फोन से फायदे कम नुकसान ज्यादा है/ मेरे पूरे लेख का
सार यही है, जिससे कदम गलत दिशा में भी उठ सकते हैं/ सिर्फ आप लोगों के लिए ही कवि ने पुकार लगाई है:--

                  पर्वत कहता शीश उठा कर, तुम भी ऊँचे बन जाओ,
            . :  
                  सागर कहता लहरा कर, मन में गहराई लाओ/

                 समझ रहे हो क्या कहती है, उठ-उठ, गिर-गिर तरल तरंग,

                 भर लो अपने जीवन में मीठी- मीठी मृदुल उमंग/

                 पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो, कितना ही हो सर पे भार,

                 नभ कहता फैलो इतना तुम, ढ़क लो सारा संसार//

                            जीवन में कुछ बन जाने पर अपने अभिभावक को भूल न जाना
                            उनका अपने जीवन में योगदान सदा-सर्वदा स्मरण रखना//

                                               राजीव" रत्नेश"
             .                         """""""""""""""""""""""""

महानगर दिल्ली बनाम इलाहाबाद शहर

महानगर दिल्ली बनाम शहर इलाहाबाद
*******************************( कविता)

खुला वातावरण है पर प्रदूषित हवा है,
लगता है महानगर दिल्ली हमसे खफा है/

सोसायटी से दो मील दूर दो बाजार हैं,
साठ-साठ रुपये खर्च करने पर चाय की दुकान है/

दस रुपये की एक कप चाय के लिए सफर करते हैं,
इसी हाल में हम दो साल से दिल्ली में बसर करते हैं/

हमारी सोसायटी में न चिड़िया न चिड़िया के पर,
कबूतर ढेरों हैं, बालकनी की मुँडेरों पर चुग्गा चुगते हैं/

हमारे पास जाने पर जरा भी न घबराते हैं,
अपनी गोल-गोल आँखों से निहार फिर मशगूल हो जाते हैं/

चार पार्क हैं, रखवाली करते माली और चौकीदार हैं,
हम ताजा-तरीन फूलों, तितलियों के शौकीन पर देर से उठ पाते हैं/

सोसायटी में बहुमंजिली इमारतों में कुत्ते पाले जाते हैं,
इंसान हमें नहीं पहचानते, पर कुत्ते हमें कुछ समझते हैं/

गेट के बाहर आवारा कुत्तों की खेप की खेप है,
कितनों को काट चुके हैं, किसी से जरा भी नहीं डरते हैं/

सरकार ने भी उनके लिए शेल्टरहाल बनवाए हैं,
वे उसमें रहने को तैय्यार नहीं, उसका मखौल उड़ाते हैं/

गेट के एटीएम पर इक्के-दुक्के ऊँघते- भौंकते मिल जाते हैं,
छोटे बच्चों का जाना तो दूर, बुजुर्ग भी पैसा निकालने में डर जाते हैं/

यहाँ जो कुछ भी है, बहुत दूर- दूर, ज्यादा फैलाव में है,
जाड़ा ज्यादा हो तो गर्मी का अहसास तो सरकारी अलाव में है/

पर उसकी व्यवस्था भी यहाँ नहीं दिखाई पड़ती है,
शाम को इसलिए नहीं निकलते," रूम- हीटर" से दूर ठंड करते हैं/

डेढ़-दो मील के अंतर पर ढेरों भगवानों का एक मंदिर है,
सभी देवी- देवता हैं पर शनीचर भगवान की लोग विशेष अर्चना करते हैं/

अभी चाँदनी- चौक की भीड़ ही हमने एक मर्तबा देखी है,
" कनाट प्लेस" के दर्शन को अपने लिए हम सपना समझते हैं/

कभी हरियाणा निकल गए, कभी यू ० पी० के मथुरा में दर्शन करते हैं,
हम तो बाँके- बिहारी की अदा में सैकड़ों छटा का अभिनंदन करते हैं/

             शहर इलाहाबाद
           *************** 

कस्बे में मेरा पैतृक आवास है, रंगीनियों से भरा हुआ,
चार चाँद- चेहरे थे ऐ शहर उनका हाल क्या हुआ?

वर्षों से उधर के लिए निकलना मुहाल हुआ है,
अब तो यहाँ रह कर जीना भी एक जंजाल हुआ है/

मेरे आवास से तीन मील के अर्थव्यास में सभी कुछ आ जाता है,
पिक्चर हाल्स ते लेकर चौक तक उसमें नप जाता है/

मेरे मुहल्ले में ही तीन प्राइमरी कान्वेन्ट स्कूल आ जाते हैं,
तीन इंटर कालेज, दो डिग्री कालेजेज उसी फ्रेम में फिट हो जाते हैं/

मेरे चौराहे पर ही नहीं, उसके चारों ओर के अगले चौराहों तक,
सभी कुछ मयस्सर हो जाता है, चाय से लेकर सिगरेट, समोसे तक/

मेरे चौराहे पर तीन तरफ चाय और मिठाई नमकीन की दुकानें हैं,
छिटपुट सामान और दूध के पैकेट के लिए कई- कई दुकानें हैं/

चौराहे पर से ही सुबह- शाम सब्जी मंडी लगती है,
बगल की दुकान पर जलेबी- इमरती, कचौड़ी समोसे मिलते हैं/

कभी चाय की चुस्की लेने के लिए चायवाले के चबूतरे पर बैठ जाता था,
फुटपाथ पर हर कोई चाय के इंतजार में सुबह- सुबह अखबार पढ़ता था/

सड़कों के चौड़ीकरण ने फुटपाथों को धवस्त कर के अपने हाल पर छोड़ दिया,
उनके नीचे नाले खोज कर लोहे के छड़ों की सीढ़ियाँ लगवा डाला/

अब सुना है कि फुटपाथ मुहल्ले से गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गए हैं,
उनकी जगह यत्‌किंचित सड़कों का चौड़ीकरण कर दिया गया है/

शहर की आम- जिन्दगी अस्त-व्यस्त- ध्वस्त पूरी तरह से कर दी गई है,
मुहल्ले के मुख्य बाजारों का चौड़ीकरण अभी तक नहीं हो पाया है/

मैं अपने शहर जब- जब जाने की किसी से बात भी करता हूँ,
बाल-बच्चे सनझाते हैं, इलाहाबाद में अब कुछ नहीं बचाह है/

शहर का दिल राजनैतिक माहौल से चरमरा कर रह गया है,
हर तरफ टूटे हुए सपने हैं, और सिमटा हुआ अरमान रह गया है/

मैं भी सोचता हूँ, मेरे सपने अब सपने ही रह जाएँगे क्या,
हकीकत की जमीन पर उतर कर वो दाना नहीं चुगेंगे क्या?

मेरा शहर भी उग्रवादी है, किसी की नहीं सुनता, अपनी ही करता है,
वह तभी हमारी बात सुनेगा, जब हम उसकी भी सुनेंगे/

सब समझता हूँ, तोड़-मरोड कर मगर अपनी ही बात पे अड़ता हूँ,
सब सही है पर" जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी" को मानता हूँ/

अपने आँचल में वह ह में तभी समेट सकेगा" रतन"
जब हम अपनी बाहें फैला कर उसकी ओर निहारेंगे//

             राजीव" रत्नेश"
        """""""""""""""""""

Thursday, November 13, 2025

बाल- दिवस पर ---!!! ( कविता)****************************

बाल- दिवस पर    ---!!!   ( कविता)
*****************************

मम्मी-पापा की राजदुलारी हूँ,
नानी- नाना, दादू की प्यारी हूँ,
क्लास की सबसे नटखट बच्ची,
मैं मौज स्कूल के प्रेप की विद्यार्थी हूँ/

सुबह-सबेरे मेरी आया आती है,
ब्रश कराती और ड्रेस- अप कराती है,
मुझे तैय्यार कर नानी, नौ बजे तक,
नीचे पहुंची कैब में बैठने को भेज देती हैं/

ठंड के मौसम में सबेरे नाना की ऊनी टोपी,
पहन कर सबसे अलग नजर आती हूँ,
और बच्चे भी तो हैं क्लास में,
खेल-कूद करते हैं सारे, सब डान्स करते हैं/

मुझसे भी भारी मेरा बस्ता है,
नहीं मुझसे वो संभाले सँमलता है,
किताबें, टिफिन, पानी की बोतल,
सभी कुछ तो उसमें भरा रहता है/

मैडम रोज कुछ न कुछ होम- वर्क देती हैं,
उसे पूरा करते- करते मैं थक जाती हूँ,
घर पर नानी- नाना के साथ खेलती हूँ,
रात गए तक ही मैं सो पाती हूँ/

नाना कहते, उनकी फुलवारी का फूल हूँ,
सब समझते कि मैं बहुत ही कूल हूँ,
सोसायटी के पार्कों में शाम को घूमती,
सुबह- सुबह तितलियों, भ्रमरों से बातें करती हूँ/

वही प्रकृति के हैं मेरे सारे खेल- खिलौने,
नित्य नये रूप में मुझे रिझाते- लुभाते,
हरी-हरी दूब पर मैं दौड़ती-भागती- गिरती,
नंदन- वन में सखियों संग जैसे राधा नाचे/

नाना की कापी मैं उनसे हठ करके ले लेती हूँ,
जो अच्छी न लगे, वो कविता फाड़ देती हूँ,
नाना थोड़ा झूठा गुस्सा करते, पर मैं मना लेती हूँ,
वो मुझे सुधरने को कहकर, फिर कविता को सुधार लेते हैं/

मम्मी-पापा का जीवन , तो नानी- नाना का प्राण हूँ,
अपनी आया के लिए तो अच्छा-खासा
संत्रास हूँ,
डेढ़ बजे जब स्कूल कैब से लौट कर
आती हूँ,
तो लिफ्ट के पास, करती उसका
इंतजार हूँ/

थिरकती चाल पे मेरे, नाना जंगल की
मोरनी कहते हैं,
मतवाली चाल पे कानन की हिरनी
समझते हैं,
अभी तो निरी बच्ची हूँ, समझने वालों
समझ जाओ,
आस्मानों से उतरी, सब सुभग- सलोनी परी कहते हैं/

दूसरी आया नई- नई है, उन्मुक्त स्वभाव मेरा समझ न पाई है,
मैं भी गर उसे समझ न पाई, उसे भगाना मेरी जिम्मेदारी है,
वो समझे न समझे, उससे मेरा कुछ
लेना-देना नहीं,
मम्मी-पापा, मामा, मौसी- मौसा की मैं
" ट्यूलिप" सुकुमारी लाड़ली हूँ//

           राजीव" रत्नेश"
        """"""""""""""""""
       १४, नवंबर,२०२५
       """"""""""""""""""

Wednesday, November 12, 2025

तुम्हारे हाथ में पत्थर है( कविता)

तुम्हारे हाथ में पत्थर है( कविता)
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आ भी जाओ महफिल में,
         दो तर्जुबानी का वास्ता,
बजाहिर है सागर में रंगीन पानी,
          दिखाओ मेहरबानी का रास्ता/

बादल फिर भी गरजेंगे,
          तूफान तेरे पहलू में लरजेंगे,
भूल जाओ कही सुनी बातें,
           छोड़ दो नातवानी का रास्ता/

जिस गली में तुम रहते हो,
            उसमें हमारा आना-जाना नहीं,
जहाँ फरिश्ते वजू करते हों, 
             वही है हमारी किस्मत का रास्ता/

हजारों आबशार गेसू में छिपाए,
              तेरी जुल्फें झटकने की अदा
हम न समझे हैं अभी तक भी,
               न जमाना तुम्हारी ये अदा/

फना हो जाएँगे हम, सितारों में कहीं,
                तुझको खबर होने से कहीं पहले,
आओ दर पे हमारे, पल्लू सर पे डाल के,
                 इसके पहले कि हम हो जाएँ खुदा/

आजा चलें  मस्जिद साथ- साथ,
                   हो जाएगी तेरी-मेरी नमाज अदा,
उड़ेंगी जुल्फें तेरी होकर बेखबर,
                    हो जाएगा दो- जहां का हक अदा/

मजबूरियाँ मोहब्बत की क्या,
                      लगता हमको इतनी सी बात भी नहीं पता,
खुद फर्मान तू है, तेरे आगे भला,
                       और किसी का हो क्या सकता है हौसला?

तुम्हारे हाथ में पत्थर है,
                        पर हाथ मेरे तो खाली हैं,
जंग गर जबानी हो" रतन",
                         तो बाज आओ , हक में तुम्हारे अच्छा//

                 """""""""""""""""""
बहाव पे दरिया है तो क्या,
                कश्ती बँधी तट से डगमगाती है,
तूफानों का खौफ नहीं मुझे,
                 बंधन से हस्ती मेरी कसमसाती है//

                 राजीव" रत्नेश"
              '"""""""""""""""""""""""

अशआर

शेर(१) हाथ उसका पकड़ा था
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करीब से करीबतर होता गया हर लम्हा,
हाथ उसका पकड़ा था, सिहरन बदन में हुई//
          """'''''''''''''''''""""""
शेर(२) कर गया वो रुस्वा
********************
सफरे- हयात में मानूस हम उसी से थे,
वो भी कर गया रुस्वा सरे- बाजार हमें//

शेर(३) वो रास्ता बदल गया
**********************
करते रहे उसका इंतजार हम हर मोड़ पर,
रास्ता बदल गया वो पहले ही मोड़ पर//

शेर(४) साहिल तक पहुंचते ही
*************************
मँझधार तक तो वो मेरी ही कश्ती का मुसाफिर था,
साहिल तक पहुंचते ही, जबरन हाथ छुड़ा गया मेरा//

शेर(५) अचानक चुप हो लिया
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शिकायतें थीं मेरी, उसके जेहन में हजारों,
देखते ही मुझे यकायक चुप क्यूँ हो लिया,
समझ न सका, उसकी इस अदा का मतलब,
करम उसका मुझ पर ये भी क्यूँ हो गया//

        राजीव" रत्नेश"
    """"""""""""""""""""""""

अशआर

शेर1.--- कहाँ ढूढ़ते हो उसको?
************************
उसकी याद तुझको किस मोड़ पे ले आई,
भुलाते बने तो अब भी भुला दे उसको?
माजी को भूल जा फर्दा की कर जतन,
आवारा गलियों में कहाँ ढूँढ़ते हो उसको?
              """"""""""""
शेर(२) काँटों में जाके कहाँ?
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मख्मूर निगाही से तुम करते सवाल,
हमको नहीं गरज, उठाएँ तुम्हारे नाज,
काँटों में जाके कहाँ उलझ गए तुम,
पेश किया था तुमको हमने गुले- गुलाब?
              """"""""""""""
शेर(३) हमने एक दूसरे को ऐसे देखा
******************************
वादा- ए- एतबार का कुछ पूछ न हमसे साकी,
पैमाना तेरे हाथ में था, नशा मुझ पर तारी हो गया,
आलम था खुशगवारी का, रंगो- गुलाल उड़ते रहे,
तुमने ऐसा देखा हमको, पल इंतजार का भारी हो गया//
                 """""""""""""""
           राजीव रत्नेश
          +++++++++

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ROM ROM SE KARUNAMAY, ADHARO PE MRIDU HAAS LIYE, VAANI SE JISKI BAHTI NIRJHARI, SAMARPIT "RATAN" K PRAAN USEY !!!