Thursday, October 30, 2025

फिर बाजार में---!!!( कविता)

बीच बाजार तुमसे नजरें चार हुईं
लगता खुद से अपनी मुलाकात हुई
सुबह से ये शाम होने को आई,
चमने- दिल में खुशियों की बारात आई

तुझसे मिलने को हम तड़पते रहेंगे
आज भी आजा, जैसे पिछले इतवार आई
जिन्दगी में तेरी याद न भूली जाएगी
नूरे- रौशन, जगमग तू है अँधेरों की बस्ती की

तेरे बहाने से तेरी याद मुझसे न भूली जाएगी
आके फिर से जानता हूँ फबन दिखा जाएगी
काली झिलमिल सितारों वाली ओढ़न ओढ़ कर,
हसरते- दिल है कि राहों में फिर से आ जाएगी

कहाँ रहती है? किस शहर से तू आई?
कुछ खास बात तूने तो न हमसे बताई
किस गली से तू बीच बाजार आई,
हम समझते हैं सारी तेरी पारसाई

फलक से सितारा टूटा कि तेरी याद आई
तू मेरी जानेमन किस्मत मेरी जगाने आई
हम खुशियों के सागर में डूबते-उतराते रहे
तू चाँद झील में कैसे उतार लाई?

चार रोजा तेरी मुहब्बत के दो रोज बीत गए
अब क्या पाँचवे दिन है मिलने की ठानी
इतना न तड़पा कि तेरी याद धूमिल हो जाए
बाजार का हर दुकानदार करता तेरी अगवानी

अब न और दूर- दूर रह, और पास आजा
मोतियों की झालर से तेरी माँग सजाऊँ
किसी तरह तेरे पास उड़ कर आऊँ
आरजुओं की गंगा में इक बार फिर नहाऊँ

कहने को तुम गैर भी नहीं हो
अपनी भी नहीं हो अभी तक मेरे लिए
आँखों में तेरे अश्क हैं, पलकों पे जुगनू हैं
माथे पे काली बिन्दी है, गालों पे फागुन है

हमसे मिलने की खुशी में झुनझुने बजाओ
दिल दो न दो, हम तो खिलौनों से भी बहलते हैं
तेरी मस्त निगाही का आलम खुशगवार है
आजा सजनी मुझे बस तुझी से प्यार है

तेरे शहर में कुछ दिन और ठिकाना मेरा
फिर किस ठौर तू, किस ठौर अफसाना मेरा
एक नाचीज से दिल लगाने की भूल तुझसे हुई
बिस्मिल थे, समझे न ये खता तुमसे कैसे हुई

तेरे रुखसारों की लालिमा क्या कहती है?
क्या तेरे नशेमन में मेरी कोई हिस्सेदारी है?
तू मेरा दिल, मैं तेरा दिलदार सनम
आजा फिर से तू कल की शाम सनम

तेरी मेरी आँखों-आँखों में बात हो
फिर बाजार में रौशनियों की बात हो

           राजीव" रत्नेश"
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तू आस्मानों से उतरे तो---!!!

शफ्फाक बदन से तेरे शरमा रही थी चाँद की चाँदनी भी
तीरगानी कमरे की विकट हास से परिलक्षित थी देख कौतुक कामिनी की
उन्नत उरोज मेरे सीने में धँसे- दबे से जाते थे, सकुचाते थे
पैर हिरनी के, चक्कर लगा आई थी मेरे सारे मनभावन गलियों की

हमजबीं, नाजनी हमने तेरे प्यार की अजमियत ही नापी थी
तूने मुझे प्यार का एक शातिर शिकारी ही समझा
गुनहगार नथे किसी के, सीना तान के चलते थे
रहती थी तेरी नजर हमेशा ही बस मेरी सधी चाल पे

तोहफा देने को तुझे दिल के सिवाय मेरे पास कुछ और न था
तुझे कुछ और ही चाहिए था, तोहफा तुझे ये नाकुबूल था
समझ गया था तुझे बस पहली ही इक बार की निगाह से
तिनका भी न तोड़ा होगा अपने हाथ से कभी, बादाख्वार बेहाल था

गोशा- ए- दिल के एक कोने में बतौर ताइरे- जज्बात थी तो तू थी
किस हाल में रसभरी से तेरे चूस डाले सारे मीठे-मीठे जहर
मेरे दिल की अरदास थी तू, मेरी बनी और मेरी ही रहे
कहाँ- कहाँ न मन्नत मानी तेरे जौरे- जौहर हमेशा मेरे शाने पे रहे

तकदीर की सिकंदर थी तू, जो तूने चाहा वही मिला
हमको गुजरगाहे- मंजिल समझ लिया, किसका पलड़ा भारी रहा
दिल का सौदा हमसे करते न बना, पकड़ शिकारी को लिया
हम ताइरे- मजरूह होकर जमीं से लगे, तू परी बन आस्मान में उड़ी

रफीकों ने कैफियत बयान की थी तुम जैसों की
बेसबब दुश्मनी तो होती है, बेगरज दोस्ती इनकी नहीं होती
इसीलिए तुमसे दोस्ती का हाथ हमने अपने आप आगे नहीं बढ़ाया
तू आस्मानों से उतरे तो" रतन" धरती की पेश तुझे सौगात करें//

                    राजीव रत्नेश
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Wednesday, October 15, 2025

हसरत( कविता)

गरज कहीं तुम्हारा दीदार हो जाए,
दिल हमारा- तुम्हारा शरशाद हो जाए

  पुरखिजां चमन में फिर से,
बजाय खिजां आलमे- बहार हो जाए

नफरतों के हादसे हटें दरम्याने- इश्क,
फिर से हममे- तुममे प्यार हो जाए

जीने की तमन्ना है इतनी थोड़ी सी बस,
तुम्हें हमारा भी कभी ख्याल हो जाए

नागवारियाँ भी नहीं इतनी अच्छी,
तुमसे अब तो रस्मे- इकरारे- वफा हो जाए

शमां बनी बेवफा, जलना- जलाना ही बस काम,
तुम्हारे होठों से कम से कम जिक्रे- बरसात हो जाए

 " रतन" की गरज गोया इतनी, कभी भूले से,
किसी तरह भी तुमसे आदाब हो जाए

जीते हैं तो बस इस हसरत में कभी तो' ताज'
हम रहें तनहां, तुम्हारी कायनात हो जाए

            राजीव " रत्नेश'

रखना तुम अपना दिल( शेर)

तुम न फँसना कलियों के जंजाल में,
भले बुलाए बागबाँ तुम्हें पुचकार के/
अपना माल तो सभी अच्छा कहते हैं,
रखना तुम अपना दिल सार- सँभाल के//
          राजीव' रत्नेश'

जाने कहाँ गए वो अहबाब?( शेर)

चाँद-सितारों से सदा वो बात करते थे, सैर करते थे हमेशा परिस्तान की,
जाने कहाँ गए वो मेरे अहबाब? बन गए थे जो कभी दुश्मन मेरी जान के/
जमीं पर पाँव न पड़ते थे उनके, आस्मानों में सदा रहता उनका ठिकाना था,
आधे से ज्यादा लोग उनमें शामिल थे, जो लोग थे उनमें मेरी अपनी ही ससुराल के/

                  राजीव' रत्नेश'
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इंसान चाहे गर( शेर)

इंसान चाहे गर तो जिन्दगी में क्या कुछ नहीं कर गुजर सकता,
आकाश के चाँद-सितारों को तोड़ दामन तेरा क्या भर नहीं सकत?
तेरे लिए सभी कुछ गोया मिट्टी के खिलौने के सिवा कुछ न होंगे,
इसे क्या मेरे लिए तू इंतजामे- हाले- सफर क्यूँ नहीं समझ सकता ?

                   राजीव रत्नेश
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Saturday, October 11, 2025

मशविरा ( कविता)

एक तवील और तल्ख मुहब्बत के अफसाने को,
                            तोड़ा-मरोड़ा भी जा सकता है/
इससे बेहतर तो सदियों की कड़वाहट को एक लफजे-
                             जुंबिशे- लब से समेटा भी जा सकता है//

तुझसे संभलते नथे नाजो- हुस्न, पैकर था शबाब पे,
चाँद-तारे बिछे जाते थे कदमों में, रिदा बिछा के,
बैठते थे हम तुम जमुना किनारे की खाली बेंच पर,
आ धमकती थी चाँदनी भी, तेरी सूरत सँवार के/
सब कुछ हासिले मस्त था, चमन की न कोई दुश्वारी थी,
बागबाँ था बेखौफ, किस अंदाज से क्यारियाँ सँवारी थीं,
महफिले- नाज में दो कबूतर परस्पर गुटरगूँ किया करते थे,
हम भी खुश होते थे रोज तेरी पालकी गगन से उतार के/
मुफलिसी का दौर कभी आड़े न आया, हमारे तुम्हारे प्यार में,
बुलबुलें चहकती थीं बाग की, तेरे इंतजार में,
समंदर की मौजों से सरोकार रखते थे,
कश्ती पे तेरे जाँनिसार करते थे,
किस कदर कलियाँ खिली थीं, कैसा बाग का नजारा था?
कोई प्यार का दुश्मन कहीं भी तो न हमारा था,
मोहब्बतों का दीप जलाए, रोज आतिशबाजी करते थे,
तेरे साथ का मौसम खुशगवार था, सूखी घास पर मस्ती करते थे

एक छोटी सी, मासूम सी अर्जे मुस्कराहट की ही तो तमन्ना
                                                         मैंने की थी/
एक तवील और तल्ख मुहब्बत के अफसाने को
                                             तोड़ा-मरोड़ा भी जा सकता है//

बेखुद हुए थे तुम खुद ही, मुहब्बत की निशानदेही पर,
अपने अपने न हुए, पराए तो पराए ही थे,
मुहब्बत को रिवाजों में कसने की कोशिश थी उनकी,
पर हम तुम तो एक ही डाल के दो पंछी थे/
इरादा किसी का काम न आया, थे आजाद हम ख्यालों से,
सतर्क रहना पड़ता था हमेशा अपने ही निगहबानों से,
अलगाव मुहब्बत न तुझे मंजूर था, न मुझे ही,
डाल छोड़ दी, साधा निशाना जब निशानबाजों ने/
सोचा- समझा अहले- दुनिया ने, क्या सोचा था क्या हुआ?
हासिले खलक कुछ न हुआ, बाज आए हम भी जमाने से,
हुशियार न थे अहले दनिया, बाँध न पाए रस्म-रिवाजों में,
बेखौफ थे हमेशा, न डरते थे, मुहब्बत के अडंगेबाजों से/
एक मुहब्बत की दुनिया कायम थी, छोटे से नशेमन में मेरे,
हम समंदर की कसम खाते हैं, तेरे सिवा दूसरा न था हमारा,
तुमसे रूठ जाने को कभी सोचा भी नथा, दूर क्या जाते,
अहले दुनिया समझेगी क्या, तू तो जानती थी इरादा हमारा/

हो के बेखौफो- खतर एक बेजुबान मुहब्बत को दिल में
                                                उतारा भी जा सकता है/
तक तवील और तल्ख मुहब्बत के अफसाने को तोड़ा-
                                                  मरोड़ा भी जा सकता है/

सूरतेहाल सँवारने को तुझसे मशविरा मेरा ये है,
हम तुम परस्पर दो सितारे कहकशां के जेरे- साया रहा जाए,
तेरा तवारूफ मुझसे हो, तेरी निगहबानी मेरी हो,
ये खूबसूरत वादियाँ मुहब्बत की सदा सदाबहार नहीं रहतीं/
परकटी और उरियाँ हो जाती हैं, मौसमे-खिजां में ये भी,
मौसमे- बहार आने पर, हम तुम फिर-फिर मिलते रहेंगे,
एक दूसरे का हाल कहेंगे- सुनेंगे, उसी के मुताबिक,
वक्ते- सैरे- गुल्शन में साथ- साथ हम तुम नजर आएँगे/

मुहब्बत के अफसाने में जमाने को इक हद तक हिस्सेदार
                                                    बनाया भी जा सकता है/
एक तवील और तल्ख मुहब्बत के अफसाने को तोड़ा-
                                                     मरोड़ा भी जा सकता है//

                    राजीव रत्नेश
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ROM ROM SE KARUNAMAY, ADHARO PE MRIDU HAAS LIYE, VAANI SE JISKI BAHTI NIRJHARI, SAMARPIT "RATAN" K PRAAN USEY !!!