Wednesday, July 30, 2025

मंच ऊँचा है" जेमिनी" का( कविता)

ये क्या किया, दूर तू कहाँ निकल गई?
आई भी तो आज, कल कहाँ रह गई?
तेरे लिए दिल में दर्द होता है, बेकली सही जाती नहीं,
यहाँ नहीं आई, रहगुजर से मेरी कई दफा गुजर गई/
भरोसा किया तुझ पर, तुम किस मस्ती में रह गई?
आई भी हो तो आज, कल कहाँ रह गई?
माना कि गुजारा-भत्ता तुझे सरकार नहीं देती,
नौकरी अपनी खुद ही तू बहाल नहीं करती,
तुझे किस हाल में अपना समझूँ, तू नहीं सुनती,
आके दर्शन से अपने मालामाल नहीं करती,
दिल लगा कहाँ, किस बस्ती में तू रह गई?
आई भी तो आज, कल कहाँ रह गई?
मदिर- मदिर तेरे नयन, होंठ रसीले तेरे,
तेरी टोकरी के आम बड़े मीठे तेरे,
आज बेर ले के आई हो, कल लीची लाना,
कल लाना जामुन भी बड़े- बड़े, काले-काले,
किस गली में, किसकी जिंदगी में ठहर गई?
आई भी तो आज, कल कहाँ रह गई?
मंदिरों में बजते घंटे-घड़ियाल, करते मुनादी,
यहीं पर असली महादेव, बताते पंडित-पुजारी,
हमसे तो बनती नहीं, पोंगा- पंडितों से नहीं करते यारी,
सट्टा खेलते भगवान के नाम पर, मुँह में डाले पान-सुपारी,
ऐसे पंडित फँसते मेरे जाल में, तू किस तरह फँस गई?
आई भी तो आज, कल कहाँ तुम रह गई?
माना कि मजबूर हैं मुहब्बत में तेरी,
बात अच्छी तरह जानती- समझती है मेरी,
फिर तू कभी आती है कभी नहीं आती,
आके दिल की धड़कन बढ़ा जाती है मेरी,
तुम भी सावन के पहले सोमवार की रौ में बह गई?
आई भी तो आज, कल कहाँ रह गई?
मुश्किल में अब तो रहते प्राण,
लेकिन अब लेगी क्या सचमुच जान,
तुझे दिल से अपना समझा था,
क्या भूल गई अपना व्यापार?
नदी की लहर तो पार निकल गई/
आई भी तो आज, कल कहाँ रह गई?
नाकेबंदी हो गई है हर डगर की,
आबो-हवा बदल गई है शहर की,
बरसात से हरियाली है हर शजर की,
हम मुंतजिर हैं कल से, तेरे जामे- लब की,
तू खुद ही मेरी रहगुजर से गुजर गई/
आई भी तो आज, कल कहाँ रह गई?
जानता हूँ शायर या कवि की जिन्दगी,
होती है महज औरों के लिए ही,
कल से बैठा हूँ, अपना ही फसाना लेकर,
यही गम है, क्यूँ लिखा फसाना अपना ही,
आजा मेरे साथ मेरे मंच पर ही, किधर जाएगी?
मंच ऊँचा है" जेमिनी" का, अखलाक न समझ पाएगी/

        राजीव रत्नेश
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