Tuesday, December 23, 2025

जिन्हें हम भूलना चाहें( संस्मरण) किश्त(५)

मैं जान्हवी का हाल जानने संस्कृत
विभाग जा पहुंचा/ सीढ़ियों से उतर कर वह फौरन
मेरे पास आई और बताया कि पेपर वाक- आउट हो
गया है/ 
              जिन्हें हम भूलना चाहें( संस्मरण)
                         किश्त(५)
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                          यही हाल हिन्दी डिपटिमेंट के साथ ही संस्कृत डिपार्टमेंट तथा एन्शियंट हिस्ट्री डिपार्टमेंट का भी था/ बाकी यूनिवर्सिटी का मुझे पता नहीं/ हम
तीन- चार दोस्तों ने मिल कर मीटिंग की और हिन्दी
डिपार्टमेंट की ओर से हड़ताल का ऐलान कर दिया
गया इस आवेदन के साथ कि पहला पेपर फिर से
कराया जाय/ हम लोगों के साथ- साथ संस्कृत
डिपार्टमेंट और एनशिएंट हिस्ट्री डिपार्टमेंट भी हड़ताल
में सम्मिलित ले गए/
                           सम्मिलित मीटिंग के पश्चात यह
निश्चित किया गया कि अपनी माँग के साथ छात्र- छात्राओं के हस्ताक्षर समेत कागज भी वी०सी० को
सौंपे जाएँ/ इसके लिए सबसे कन्टैक्ट करने का काम
शुरू किया गया/ रोज मीटिंग करते और पेपर में
निकलवाते/ इन सब बातों में करीब डेढ़ महीने निकल
गए/ हड़ताल को लंबा खिंचता देख हमारे साथ आए
आगंतुक डिपार्टमेंट्स ने अपनी ओर से ही हड़ताल
वापसी का ऐलान कर दिया/ स्तंभित हो हमारे हिन्दी
डिपार्टमेंट के साथियों ने भी साथ छोड़ना शुरू कर दिया/ हफ्ते भर और बीतते न बीतते लम और शरत
अकेले बचे तो हम लोगों ने वी० सी० से मिल कर
अपनी बात रखने की सोची/
                            और एक दिन शाम के वक्त मैं और शरत वी० सी० से मिलने पहुँच गए/ वहाँ जो
बात हुई उसका सार- संक्षेप यही है कि वी ० सी० ने
हम लोगों को नेता की उपाधि से नवाजा/ उन्हें
हड़ताल वापसी की खबर मिल चुकी थी अब वह
हम दोनों को भी तौल रहे थे पर हम लोगों ने अनुरोध
किया कि हम सिर्फ और सिर्फ छात्र हित में आपसे
मिलने आए हैं/ हम लोगों के दो से ज्यादा प्रश्न हल
होने से रह गए हैं/ और हमें नेता बनने की कोई चाह
नहीं है/ उन्होंने हम दोनों से नाम पूछे जो हमने बदल
कर बताए/ वी० सी० साहब भी समझ गए थे कि
हड़ताल अब समाप्ति के कगार पर है और छात्रों को
दबाने का पूरा बन्दोबस्त उन्होंने कर रखा था/ हम
उन्हें समझाने में बुरी तरह असफल हो गए थे/
                        दूसरे महीने के अंत तक शरत मेरे
पास आया और बताया कि उसके पास चीफ- प्राक्टर
का धमकी भरा पत्र आया है/ हमें यह समझने में देर
न लगी कि किसी ने हमारी सही-सही शिनाख्त की०सी० साहब से की है/ तीन- चार दिन बाद मेरे
पास भी उक्त आशय का लिफाफा आया/ मैंने शरत
से कहा कि अब वह दूसरे पेपर की तैय्यारी करे क्योंकि आगामी इम्तहान की घोषणा हे चुकी है/
                           शरत बिना मुझसे बताए की०सी० ते जाकर मिल आया और मुझे बताया कि मैं भी अब जाकर वी० सी० से मिल लूँ क्यूँकि वह कह रहे हैं कि राजीव से कह दो कि एक बार आकर उनसे
मिल लूँ/ शरत के बार- बार आग्रह करने पर मैं समझ गया कि वह वीसी से मिल कर अपनी रोटियाँ सेंक आया है/
                            पर मैं वी ० सी० से मिलने नहीं
गया और निर्विकार भाव से बाकी के तीनों पेपर दे आया/ मेरा वाइवा मेरे संपूर्ण क्रांति में सहयोगी रहे प्रोफेसर ने खराब करवा दिया, क्यूँकि इग्जामनर
बाहर के थे और उनके पूछने के बजाय मेरे कभी के
सहयोगी रहे मित्र ने मेरा वाइवा लिया और मेरे सही
जवाब को भी नहीं में करार करते रहे/
                                फिर भी मेरे नंबर अच्छे थे और मेरा नाम टाप टेन में था/
                             एम०ए ०( फाइनल) में मैं
यूनिवर्सिटी बीच- बीच में ही जा पाता था/ कारण कि
मेरा आफिस भी था और अब आफिस से मैं बिना
प्रापर एप्लीकेशन के गायब नहीं हो सकता था/ पर जान्हवी मिलने रोज शाम को उसके घर पर जाया
करता था और उससे नोट्स लेकर अपने नोट्स
बनाया करता था/ इस दौरान न जाने कितनी बातें-
वारदातें मेरे और जान्हवी के दरम्यान हुई/ कुछ याद
रह गईं, कुछ जान बूझ कर भुला दी गई/
                                 इसी बीच मुझे बता लगा कि सन्ध्या जान्हवी की बुराई और अपनी अच्छाई ही मुझसे बयान करती थी/ चूँकि मैं शाम को जाता था
और प्रभात भी शाम को ही खाना खाने के वक्त अपनी माँ बहनों से मिलने आता था/ उसकी मुझसे
प्रगाढ़ मित्रता ले गई थी और वह मुझे शाम का नाश्ता
चाय अपने साथ ही कराता था/ उसकी माँ भी बड़े प्रेम से एक अंडा उसके पापा के लिए और एक मेरे
लिए रोज मँगवाती थीं, जिसे मैं दो पराँठे के साथ खाता था और सन्ध्या हम लोगों के लिए चाय बना
लाती थी/
                                पढ़ने के अब जान्हवी भी
अक्सर मुझे अपने साथ ऊपर ले जाती थी, जहाँ
प्रभात और उसकी माँ हमारे इंतजार मे होते थे/
उसके पापा और विकास भी होते थे और मैं कमरे
और रसोई के बीच पड़ने वाले छत पे प्रभात के साथ
बैठता था/ रहा सवाल संध्या का तो वह शायद ही कहीं जाती थी/ नाश्ता तथा खाना बनाने में वह अपनी
माँ के साथ लगती थी/ एक बात मैंने गौर की थी कि जान्हवी ने कभी एक कप चाय भी मुझे बना कर नहीं
पिलाई/ संध्या को जूठे बरतन भी कई बार मैंने माँजते
देखा था/
                               आँखें दिल की जुबान होती हैं और यही कुछ सन्ध्या की आँखों में तिरता हुआ हमेशा
साफ- साफ मुझे नजर आता था/ एक तो उसका, मेरा लेटर जान्हवी को न देना मेरे सन्देह को और पुष्ट करता था, जिसके लिए वो जान्हवी से डाँट भी खा
चुकी थी/ पर उस समय वह मुझे आफत का परकाला लगती थी/
                                    उसने मुझसे जान्हवी की
शिकायत भी की थी कि वह कोई काम नहीं करती
और झाडू-बुहारु से लेकर बर्तन माँजने तक का हर काम वह स्वयं करती है/ अतिथि-सत्कार भी उसी
के जिम्मे है/ मैंने उससे पूछा था ," यह सब काम तुम
अपने मन से करती हो या तुमसे करवाया जाता है?"
तो वह बोली," अपने मन से न करूँ तो माता जी
खाने को भी न पूछें और मारें अलग से/" मैं यह
सुन कर सहम गया और सन्ध्या के प्रति मैं मोह से
भर उठा/
                        जान्हवी आई मेरे पास तो उससे किसी दूसरे रोज मैंने कहा," घर के काम में हाथ बँटाया करो नहीं तो तुम्हारे सुकुमार बदन में जंग लग
जाएगी/" इतना सुनते ही वो तपाक से मुझसे तमतमा
कर पूछ बैठी कि ऐसा मुझे संध्या ने कहा है क्या? पर
मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया/

पढ़ाई के दौरान मैं जान्हवी की आँखों में मतला ढूँढ़ने की कोशिश करता था उसके बाद अशआर के साथ मकता भी उसके रजिस्टर पर लिख
देता था/ ऐसी कितनी ही गजलें मेरी बेपनाह मुहब्बत
का सुबूत बन कर उसके दिलो-दिमाग में जज्ब थीं, जिन पर वह कमेन्ट भी करती थी अपनी सुमधुर आवाज के साथ/
                  एक दिन मैं, छुट्टियों के दिन सबेरे-सबेरे सायकिल से ही पीला गुलाब अपने दायें हाथ में लेकर उसके यहाँ जा पहुंचा/ जान्हवी तो सामने नजर नहीं आई पर मेरी आहट पहचानने तथा आवाज की कशिश की दाद देने वाली सन्ध्या लपक कर मेरे पास
आ गई और गुलाब लगभग छीनते हुए कहा---
शायद यह मेरे लिए है और अपने गुलाबी होठों से लगा कर बोली, खुशबू कितनी अच्छी है/ आखिर
सन्ध्या से मैं पूछ ही बैठा कि उसे फूल की खूबसूरती
पसंद है या खुशबू तो वह बोली पहले पता तो लगे---
कौन फूल है और कौन खुशबू/
                   मैंने इस बात का कोई जवाब न दिया, इस प्रश्न को जानबूझ कर अनुत्तरित रहने दिया/ उसकी हाजिजवाबी और चुलबुली अदाओं से मैं दंग
था-----
           कल तक जो थीं बेजुबान,
           छूटते ही दे रहीं जवाब/
           सूरत भी चाहिए सीरत भी,
           गुल भी चाहिए और नकहत भी//
                        मैंने उससे इतना ही उसका आशय
लगभग भाँपते हुए कहा---- सिर्फ और सिर्फ जान्हवी
का ही मेरे पर अधिकार हो सकता है, किसी और का
नहीं/ यदि तुम्हारे पापा ने जिद ही ठान रखी है तो दो
जिन्दगियों से वो खेल रहे हैं/ अगर मेरी किस्मत रंग लाई तो जान्हवी मुझे जरूर मिलेगी, अगर उसने साथ
दिया तो/ इस पर वह बोली--- अगर साथ न दिया तो क्या आपके पास दूसरा विकल्प भी है/ नहीं है तो होना ही चाहिए/ पापा का स्वभाव मैं जानती हूँ जो
आप समझ रहे हैं, वैसा कतई संभव नहीं हो पायेगा/
                          I understood what he meant but said, "I don't need any alternatives, I can live my life alone."

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ROM ROM SE KARUNAMAY, ADHARO PE MRIDU HAAS LIYE, VAANI SE JISKI BAHTI NIRJHARI, SAMARPIT "RATAN" K PRAAN USEY !!!