जिन्हें हम भूलना चाहें---- संस्मरण
किश्त ( ८ )
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मैं जान्हवी के घर कीडगंज जा पहुँचा उसका हाल जानने और बधाई देने के लिए ही शायद/
वह अपने कमरे में ही मिल गई और मैंने उससे सिर्फ
इतना पूछा कि अगर उसे शादी से कोई ऐतराज हो तो
मैं उसकी शादी को प्रयत्न पूर्वक रोक सकता हूँ/ पर
उसने बताया कि लड़का पापा की पसंद का है/ मैंने
फिर आगे पूछा---- क्या करता है, कितना पढ़ा है और
कितना कमाता है/
उसने मेरे सारे प्रश्नों का उत्तर बस एक ही
बात से दिया कि लड़का जे०ई० है और 800 रु ०
पाता है/ जान्हवी ने उसकी तनख्वाह बता कर शायद
मेरी रूह फाख्ता करने की सोच रही थी/ मेरे कहने-
सुनने को अब कुछ बचा ही नहीं था, फिर भी मैंने कहा
--- तुम चार सौ रुपये के लिए ही परिशान थी, अब
उसके दुगुने में उत्साह से जिन्दगी बसर करना/ अब
120 रू0 स्टाइपेंड के भी मेरे पास नहीं थे और नौकरी छोड़ कर मैं बेकार हो चुका था/ किस मुँह से
उसको रोकता/
मैं अब जान्हवी में इंटरेस्टेड नहीं था/ रह रह कर मुझे संध्या की भविष्य वाणी याद आ रही थी/
कब जान्हवी की शादी हुई, मुझे कुछ भी
अता-पता न था/ मुट्ठीगंज उसकी नानी के घर से ही
शादी हुई होगी/ ऐसा मेरा अनुमान था/ उसे गुप चुप
तरीके से ही ब्याह दिया गया था, कहीं लोकल ही/
मुझे इस बात का ही संतोष था कि मैंने
उसे धोखा नहीं दिया था/
रही बात सन्ध्या की तो वह पापा के आगे
पहले ही नतमस्तक थी/ वह भी अब जान्हवी का हाल
देख कर पापा के खिलाफ विद्रोह की भूमिका में मुझे
न दिखाई पड़ी, मैं समझ चुका था कि----
प्यार के थर्मामीटर का पारा, जितनी तेजी से ऊपर चढ़ता है, उतनी ही तेजी से नीचे भी उतर जाता है/
जान्हवी की शादी के तकरीबन दो तीन
महीने बाद-- इलेक्ट्रिक सबिस कमीशन, में वैकेन्सी
निकली/ तंगहाल तो मैं था ही, सो मैंने अप्लाई कर
दिया/ इस्तहान देकर मैं सेलेक्ट भी हुआ और सात-
आठ सौ के लगभग मेरी स्टार्टिंग तनख्वाह थी/ पर
मुझे कोई खुशी न थी/ अगर यही नौकरी मुझे पहले
मिली होती तो मैं जान्हवी को हमेशा के लिए खो न
देता/
कहाँ तो वह मेरे साथ ५०० रु० में गुजारा करने को तैय्यार थी/ वह भी मान जाती और
उसका बाप भी शायद अब व्यवहारिक हो जाता/ पर
जान्हवी ने मुझमें और पैसे में, पैसे को बेहतर चुना, जो
उसकी तंगहाली की वजह से था शायद/ उसे मेरा
भरोसा नहीं था/ यूनिवर्सटी अब मुझसे छूट गई थी,
अब मैं कमपेटेटिव एग्जाम की तैयारी करने लगा/
कविताएँ लिखना एक बार फिर से छूट गया/ अपनी
पहली तनख्वाह मिलने पर मैंने पिताजी को दिया तो
उन्होंने मुझसे लिया नहीं और उसे मेरी पढ़ाई में लगाने
को कहा/ जब मैंने पुनः रिकवेस्ट की तो उन्होंने माता
जी को देने की बात कही/ उसके बाद मैं अपनी
तनख्वाह मैं अपने पास न रख कर माता जी को ही
देता था/ पाकेट- खर्च के रूप में माता जी से दो रुपये
रोज लेता था, सायकिल में हवा भरवाने तथा चाय आदि के लिए/
जान्हवी की ताफ से मैं उदासीन हो चुका
था, गाहे-बगाहे उस पर एक दो कविता लिख देता था/
साहित्यक गोष्ठियों में भाग लेना भी लगभग छूट गया
था, कारण कि अब समय का मेरे पास अभाव था/
सन 1977 में मैं नौकरी में परमानेन्ट
ले गया/ 1979 में बड़ी बहन की शादी हुई/ जीजा जी को विजय सुपर स्कूटर दी गई, जिसे वह चलाना
नहीं जानते थे/ वह स्कूटर शादी के काफी पहले खरीदी जा चुकी थी/ मैंने उसी स्कूटर से स्कूटर
चलाना सीखा और कुछ दिनों में अभ्यस्त हो गया/
जान्हवी की वापसी
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मुझे नौकरी मिलने के कुछ दिनों बाद ही
प्रभात मेरे पास आया और बताया कि जान्हवी मुट्ठीगंज वाले घर पर है और वहीं पर उसने मुझको
बुलाया है---- जान्हवी को भला अब मुझसे क्या सरोकार/ कुछ दिनों के लिए आई होगी, फिर वापस
अपने घर चली जाएगी/ तो वह बोला--- आप बस
उससे एक बार मिल तो लीजिए/
जान्हवी ने मुझ पर अपना पता नहीं कौन
सा अधिकार जतला कर बुलवाया था, पर मैं वहाँ उससे मिलने नहीं गया/ बस एक चौराहे से भी कम
की दूरी थी पर उसके घर पर जाने के नाम पर कदम
बोझिलता महसूस कर रहे थे/ उसके साथ के एहसास
के साथ जो मैंने सपने सजाए थे, वो सपनों का महल
धराशायी हो चुका था/ मैं जानता था कि मुहब्बत जितनी तीव्र होती है, उतनी ही तीव्र नफरत में भी
बदल सकती है/
मुझे ही अब उसकी मुहब्बत पर
अविश्वास था और वह मुझसे अब क्या चाहती है, मैं
समझ नहीं पाया था/ पर वह मुझसे मिलने को प्रयत्न-
शील थी/
पता नहीं किस तरह विलेन के रूप में,
उसके पापा का चरित्र मेरे पर उजागर हुआ था कि वो
मेरे और जान्हवी के बीच, कठिन परीक्षा की घड़ी
उपस्थित करने में, पूरी तरह कामयाब हो गए थे और
जान्हवी की हिम्मत तोड़ने के लिए हर संभव- असंभव
तरीके ईजाद कर डाले थे कि मुझे लगने लगा था कि
जान्हवी उनकी बिटिया ही न थी/ मुझे लगता है इसका उन्हें जरा भी अफसोस नहीं था/
जान्हवी ने मेरा न तो साथ माँगा और
न ही मेरा इंतजार करने में असमर्थता दिखाई / उसके
घर वालों ने जान्हवी के उज्जवल भविष्य की सोच कर
अपनी मनमर्जी से उसकी शादी की थी/
पहली बार वह किस खुशी और प्रसन्नता से, अपने घर वालों की बात ठुकरा कर ही तो
मुझसे मिलने आई थी/ पर अब बहुत देर हो चुकी थी,
और चिड़िया शायद अपना दाना-पानी पा चुकी थी/
पर पता नहीं क्यों मेरा मन इस बात
को नहीं मान रहा था कि अब वह मुझसे दूर हो चुकी है/ उसका मादक स्पर्श और प्यार का इकरार बार-
बार मुझसे कह रहा था कि इक दिन जरूर वो अपने
प्यार की खातिर लौट कर आएगी/ ज्यादा देर तक किसी गैर की बाहों के सहारे वह नहीं रहने वाली/
मुझे बस उसी दिन का इंतजार था और उसी इंतजार
के सहारे ही मैंने शादी न करने का फैसला कर लिया था/
मैंने सोचा इंतजार की बेला अब
समाप्त हुई और वह सचमुच ही लौट आई थी और अपने पापा से दूर अपनी नानी के घर डेरा डाल रखा
था/ इस खबर से मेरे दिल का मुरझाया चमन अचानक ही पुष्पित- पल्लवित हो उठा/ पर वह किस
हाल में पलट के आई थी, मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं था/
दूसरे दिन प्रभात मेरे पास फिर आया और मुझसे जान्हवी से एक बार मिलने का आग्रह करने लगा, जो जान्हवी की शादी में अपना
विरोध प्रदर्शित करने का साहस भी न जुटा पाया था
और मैं अपने को अकेला समझ कर चुप रहा/ उसके
पापा से मेरा 3 - ६ का आँकड़ा था, आज वही प्रभात
क्यूँ जान्हवी की दलाली कर रहा था/ मैंने सोचा कि
जान्हवी से मिलने में मुझे देर नहीं करनी चाहिए/
उसके पापा के अलावा उसके घर का प्रत्येक शख्स
मेरे यहाँ आ चुका था/ पर उसके पापा का कुछ न कहना ही मुझे खल रहा था/ मैंने प्रभात से जानना
चाहा कि वह कब तक मुहीगंज में रहेगी पर वह सांस
रोक कर बैठ गया और बोला पता नहीं, बस एक बार
तुम उससे जरूर मिल लो/
मैं उसके साथ गया जरूर पर वह मुझे जान्हवी के सामने बिठा कर वहाँ से अंतरध्यान हो
गया बिना कुछ कहे सुने, बिना किसी सूचना के/
जान्हवी मेरे सामने, बिना किसी हाव- भाव, बिना किसी भाव भंगिमा के मेरे सामने बिल्कुल चुपचाप
बैठी थी/ मैंने ही बोर होकर बात शुरू की कि यह
प्रभात कहाँ गायब हो गया, वो भी दरवाजा उढ़का के/
मैंने उससे पूछा--- मुझे क्यूँ बुलवाया था, क्या अब भी
तुम्हें मेरी याद आती है, यहाँ दिल बहलाने को आई हो
या समय बिताने और घूमने फिरने/ फिर मैंने आखरी
सवाल पूछा----- इलाहाबाद में यानि कि अपने मायके
में कब तक रहना है इत्यादि इत्यादि फारमल सवाल
पूछे तो उसने रोना- बिसूरना शुरू किया/ उसने अपने
वैवाहिक जीवन की असफलता का जो रोना-धोना शुरू किया, उसका अंत न होता देख मैंने उसको
टोकना शुरू किया--- अपनी खुशी से तुम गईथी, अब
रोना- बिसूरना किस बात का/ उसने बताया कि उसने
रविन्द्र को त्याग दिया है, वह उसके यहाँ कभी नहीं
जाएगी/ मैंने उसका इस समय का इरादा पूछा तो
वह बताने लगी कि वह मुझ पर शक करता है और
कहता है कि उसके पेट में पलने वाला गर्भ भी उसका
नहीं है/
जब मैंने जानना चाहा कि फिर वह गर्भ
किसका है/ इस पर वह बोली-- उसके सिवा भला
किसका होगा/ पर वह मुझे छोड़ने का मन बना चुका
है और मुझे साथ रखने को भी तैय्यार नहीं है और मुझे
हंटर से मारता भी बहुत है/ मेरी तस्दीक के लिए उसने
अपनी जांघ और कमर के वस्त्र खोलने चाहे, पर मैंने
सख्ती से मना कर दिया/
अब मैंने ज्यादा कुछ और सुनना और
कुरेदना न चाहा और समझ गया कि भाई- बहन का
इरादा मुझे फँसाने का है/ मैंने पूछा--- प्रभात मुझे बिठा कर कहाँ गया तो वह दरवाजा खोल कर अंदर
आया और कहा--- राजीव तुम्हारे लिए चाय बना रहा
था, अभी आया/ मुझे लगा वह छिप कर मेरी और
जान्हवी की बातें सुन रहा था/
जान्हवी से मैंने और कुछ नहीं पूछा पर
मैं इस बात को लेकर निश्चिंत था कि वह मेरा बच्चा तो
बिल्कुल हो ही नहीं सकता था, चुंबन से बच्चा पैदा
लेता है, यह मेरी बहुत पहले की सोच थी/ मैं खुद ही
आगे नहीं बढ़ा था नहीं तो जान्हवी सच में मेरा बच्चा
पालने को भी विवश होती और मुझसे ही जान्हवी की
शादी करने को उसका बाप भी मजबूर होता/ मेरी
सिधाई का नाजायज फायदा उठाने की उसके घर वालों ने सोची कैसे/ क्योंकि रविन्द्र ने अपने को
नपुंसक घोषित कर दिया था कि उसका बच्चा हो
ही नहीं सकता था/ फिर मैं सोचते-सोचते कि वह
बच्चा आखिर किसका होगा, मैंने दरवाजे को झटके
से खोला और बाहर निकल आया/

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