जिन्हें हम भूलना चाहें ( संस्मरण)
. किश्त(२)
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मैं जाता था जान्हवी से मिलने के लिए/ और उससे
ढ़ेरों बातें भी करना चाहता था पर उसकी माँ और
संध्या पहले ही मुझसे मिल लेते थे/ ढेरों सवाल होते थे उनके, जिनका मैंने सच-सच जवाब दिया/ यह
सोचा भी नहीं कि यह" यक्ष-युधिस्ठिर संवाद" जान्हवी की प्रेम कहानी में क्या क्या उतार चढ़ाव लाने
वाला था/
कई बार तो मेरी उससे मुलाकात भी नहीं हुई, और उस अफसोस की भरपाई करने के लिए मैं सोचने लगा/
जब भी मेरी उससे मुलाकात हुई, सन्ध्या
के सान्निद्य में हुई, पर मैं किसी से कुछ पूछना अपनी
शान के खिलाफ समझता था/ सन्ध्या का अब वहाँ
जान्हवी के साथ रहना अखरने लगा था/ उससे मैंने यह भी नहीं पूछा कि वह कहाँ है और मुझसे मिलना
क्यूँ नहीं चाहती थी?
मैंने जान्हवी के नाम अपनी जिन्दगी का
पहला लव लेटर लिखा था और जब वह न मिली तो
उसे मैंने संध्या को उसको देने के लिए दे दिया/ जिसमें
मिलन का उत्साह कम, जुदाई का तराना ज्यादा था/
" ढूँढ़ा बहुत तेरा तोड़ जमाने भर में न मिला,
या तो कहीं था ही नहीं, या ठीक से ढूँढ़ न सका/
मैंने इस बात को मार्क किया है कि वियोग में दिल का सब्जा तरह- तरह के फूल खिलाने
लगता है पर संयोग में वह कोई निर्झरी निःसृत नहीं
करता/
मैंने इस दरम्यान जान्हवी के लिए तमाम कविताएँ लिख रखीं थीं पर श्रोता के रूप में
जान्हवी सुलभ न थी------
" तेरा रूप- श्रृंगार है कुछ ऐसे,
उतरा हो झील में चाँद जैसे''
जैसी कई कविताएँ जो लिखीं थीं, सोचा कि संध्या को ही बिठा कर अब उसे ही सुनाऊँ/
देखना होगा कि वह अब भी जान्हवी से मेरी मुलाकात करवाती है अथवा नहीं/ पर तत्क्षण इस
विचार को दिल से विदा कर दिया कि जान्हवी क्या
समझेगी?
मैं एक मिडिल क्लास फैमिली से बिलांग करता था और मुझे जान्हवी की बात से यह
अहसास हो गया था कि उसकी स्थिति भी मुझसे
बेहतर नहीं थी/
मेरे पिता जी उक्त पावर हाउस हेड-
कलर्क की हैसियत से कार्यरत थे और मेरी नौकरी में
उनका योगदान शत-प्रतिशत था/
आज जब वो हमारे बीच नहीं हैं,
मुझको उनकी कर्मयोगी सी कार्यप्रणाली अभिभूत
कर जाती है/ सुबह चार बजे उठ कर मुहल्ले की गलियों में तथा अपने पूरे घर में झाडू-बुहारु करना
उन्हीं के वश का कार्य था/ उसके बाद अपनी नंदिनी
गाय तथा उसके बछड़े को चारा देने का उनका रोज
का काम था/ माता जी भी मुँह अँधेरे उठ जाती थीं
और नहा धोकर खाना बनाने में जुट जाती थीं/
तब मिट्टी के चूल्हे के साथ लकड़ी
का प्रयोग होता था/ पत्थर कोयला और लकड़ी के
बुरादे का प्रचलन तब तक नहीं हुआ था/ गैस और
प्रेशर- कूकर ने आजकल के मन- मानस को कहीं
ज्यादा ही प्रभावित कर दिया है/
आठ बजे तक खाना बन कर तैय्यार
हो जाता था और पिताजी भी नहा कर तथा पूजा पाठ
खाना खाकर साढ़े आठ बजे तक आफिस के लिए
घर छोड़ देते थे/ रात में खाना खाकर लेटने पर मुझसे
अपनी किताबें पढ़ कर सुनाने को कहते थे/
चौकी के सिरहाने आलमारी पर जी०ई० सी० का बड़ा रेडियो रखा हुआ था/ विविध-
भारती पर हवा महल सुनना हमारे रोज के कार्यक्रम में
शामिल था/ समाचार सुनने के बाद रेडियो बंद कर दिया जाता था/
दिन में माता जी गोबर पाथने और दही तथा मलाई बना कर घी निकालने का काम करतीं तथा सुबह तथा शाम गाय दुहने के बाद बिना
किसी प्राफिट के मुहल्ले वालों को उदार- वितरण
कर देती थीं/ यह हम लोगों के घर का रोज का नियम
था/ मेरे ख्याल में शायद ही कभी इसमें बदलाव हुआ
होगा/
रहा सवाल इलाहाबाद पावरहाउस
को प्राइवेट करने की चर्चा को लेकर/ इसमें कोई नई
बात नहीं है/ पावर हाउस पहले भी प्राइवेट ही था,
अंग्रेजों को गुलाम था तब वह" मार्टिन बर्न एंड कंपनी" था/ उसी में जेनरेशन डिपार्टमेंट था/ डी०सी०
जेनरेट करने की मशीनें लगी हुई थीं/ उसकी धुँए की
चिमनी शहर के किसी भी कोने से देखी जा सकती थी/ बायलर को ठंढ़ा रखने के लिए तमाम फौवारे लगे हुए थे/ वह लोगों के लिए दर्शनीय था और लोग उसे
देखने आते थे/
पावरहाउस अकेले ही लखनऊ, आगरा, इलाहाबाद इलेक्ट्रिक सप्लाई अंडरटेकिंग के नाम से प्रख्यात था और इन शहरों को बिजली सप्लाई की जाती थी/ हेडक्वार्टर लखनऊ था और
वहीं से बिल छप कर आता था और वितरण ठेकेदार
के आदमी करते थे/
न जाने वह कौन सी मजबूरी आ गई कि जेनरेशन डिपार्टमेंट अफसरों को बंद करना पड़ा/
मशीनें बेच दी गईं/ अनपरा से ए०सी० की सप्लाई की
जाने लगी/
आजकल कोयले से बिजली बनाने के लिए कितनी कंपनियाँ प्रयत्नशील हैं, परंतु सफलता
उन्हें हासिल नहीं हो पा रही है/ आजकल " उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन लिमिटेड" को ही प्राइवेट करके कौन सा तीर मारने की कोशिश की जा रही है,
समझ नहीं आता/
पिता जी आर्य- समाज को मानते थे और विचारों के आदान-प्रदान के लिए उसे एक स्थायी
और अच्छा मंच मानते थे/ समाज के वार्षिक सम्मेलनों में वे मुझे बचपन से ले जाया करते थे/
आर्य- समाज की दो बातें मुझे अच्छी
लगी थीं, पहली तो यह कि आर्यसमाजी झूठ नहीं
बोलता, दूसरा ब्याह के पहले तक ब्रह्मचर्य का पालन
करता है/
उनका मेरे प्रति यही आदेश था कि
सच का दामन कभी न छोड़ो/ एक सच बड़ी-बड़ी
विपत्तियों से भी रक्षा कर लेता है/ दूसरी उनकी बात
किसी से प्रत्युपकार न चाहने की बात थी/
एक बार अपने को मेरा मामा कहाने
के शौकीन उनके सहयोगी किसी कन्ज्यूमर के साथ
मेनेगेट के बगल के रेस्तरां में बैठ कर माल उड़ा रहे थे/ मुझे देखा तो उन्होंने मुझे भी बुला लिया और पूरा,
" राजीव! रसगुल्ला खाओगे क्या?" मैंने नहीं में सर
हिलाया और वहाँ से हटना चाहता ही था कि मेरे सामने उन्होंने उस व्यक्ति से कहा," कुछ दे दो, बड़े
बाबू के लड़के हैं, कुछ खा-पी लेंगे"/ और वह
आगंतुक एक दो का लाल नोट उनकी मुठ्ठी में ठूँस
चलता बना/ उस दो के नोट को उन्होंने अपनी पाकेट
के हवाले किया/ तब मैं सर्विस नहीं करता था/
न जाने कितने लोग पिताजी के नाम
पर कमाते-खाते होंगे, इसका अंदाज मुझे अब लगने
लगा था/
मेरा यूनिवर्सिटी जाना नहीं छूटा/
जान्हवी से मिल पाने की ललक हमेशा मेरे दिल में
" सीपी की बूँद की खोज" की तरह रही/
एक दिन मुझे सफलता मिल ही गई/ एडमिट कार्ड लेने वह अपनी सहेली के साथ यूनिवर्सिटी गई थी/ इत्तफाक से मैं भी अपना एडमिट
कार्ड उसी दिन लेने गया था तो वहाँ के कार्यालय के
बाबूलाल ने मुझे बताया कि जान्हवी भी आई हुई है/
संकेत से उसने बताया कि उधर डिपार्टमेंट में ही अभी
है/ मैं उधर उसके पीछे लपका, वह मेरे पास आई और बताया कि उसके पापा उससे और मुझसे सख्त
नाराज हैं/ कारण वह भी समझती थी और मैं भी अंजान नहीं था/
मैं सोचने लगा कि पता नहीं मेरा वह लेटर उसे दिया अथवा नहीं, नहीं तो वह जरूर
अपनी ओर से मिलने का उपक्रम करती, यहाँ तो उसने उसका जिक्र तक नहीं किया/
मैंने उसे यूनिवर्सिटी रोड पर भार्गव
रेस्टोरेन्ट में चलने को कहा/ वह तैय्यार हो गई और
इस तरह हमारी मुलाकात उस रेस्टोरेंट के माध्यम से हुई/ मैंने कहा कि एग्जाम अब शुरू ही होने वाले हैं,
तुमसे अब मुलाकात कैसे होगी? उसने कहा कीडगंज
घर पे आइए/ आपको डर किसका है?
मैंने कहा ," मैं तुमसे मिलने को कितना परिशान था और तुम भी मिलने का नाम तक
नहीं ले रही थी/" उसने कहा इम्तहान हो जाए तो इत्मीनान हो फिर हम लोग खुले आम मिला करेंगे/"
मैंने कहा इम्तहान के पहले ही एक बार तुम्हारे घर
आऊँगा/ मुझे अभी मेरे नोट्स भी समेटने होंगे/
उस दिन तो जान्हवी मुझसे विदा
होकर घर चली गई और मैं उसके ख्यालों में ही निमग्न रहने लगा/
एक दिन मैं हाथ में पीला गुलाब लिए हुए कीडगंज जान्हवी के घर जा पहुँचा/ जान्हवी तो सामने नहीं आई पर मेरी आहट को भी पहचानने वाली संध्या मेरे पास आ गई/ और गुलाब मेरे हाथों से
लेते हुए बोली,' यह मेरे लिए है?' मैंने स्पष्ट किया,
" नहीं यह सिर्फ और सिर्फ जान्हवी के लिए है, तुम्हें
पसंद आया तो तुम्हें दूसरा ला दूँगा/" इस बात से
उसका मुँह उतर गया/ मैंने खतरा भाँपा और सन्ध्या
से पूछ बैठा," तुम्हें फूल पसंद है या खुशबू?" वह बोली," यह फूल तो बहुत सुन्दर है/ आप ही वो फूल
हैं, जिसकी तलाश हर खुशबू को रहती है"/ मैंने कहा,
" खुशबू बताने की चीज नहीं है, महसूस करने की
चीज है/"
मैंने संध्या से बस इतना ही कहा," सिर्फ
और सिर्फ जान्हवी का इस फूल पर अधिकार हो
सकता है, किसी और का नहीं/
कल तक जोथीं बेजुबान,
हैं कुछ ज्यादा ही मेहरबान/
सूरत भी चाहिए, सीरत भी,
गुल भी चाहिए औ' नकहत भी//
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