जिन्हें हम भूलना चाहें--- संस्मरण
किश्त ( ६ )
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मैं सन्ध्या की बात का मतलब समझ रहा था पर बोला
--- मुझे विकल्प की कोई जरूरत नहीं/ अकेल भी
जिन्दगी बसर कर लूँगा/
पाठकवृंद, आप मुझे शायद पत्थर दिल
इंसान समझ रहे होंगे, जो मैं संध्या के प्रति इतना
कठोर रवैया अपना रहा था/ यदि मेरा दिल मोम का
न बना होता तो जान्हवी के प्रेम की आँच से पिघल
कर इतना विवश न हो गया होता तथा हकीकत
जानते, समझते हुए भी सन्ध्या की तरफ आकर्षित
होने से अपने को रोक रहा था/ कारण था कि
जान्हवी के साथ के लिए तो उसके पापा से लड़ने में बड़ी प्राब्लम थी, मैं सिद्धांत वादी तो वो रूढ़ प्रकृति
के थे, यदि संध्या का हाथ अगर मैं उनसे माँगता तो
परिस्थितियाँ और भी भयंकर होने की पूर्ण संभावना
से इंकार नहीं किया जा सकता था/
जान्हवी ने मुझे इक रोज पढ़ाई के दौरान
मुझे बताया था कि पापा ने उसको पढ़ाई के लिए साथ के लिए, उसके ब्वायफ्रेंड के साथ कोई शर्त
लगा दी थी कि वह शादी करेगा तो संध्या से ही करेगा/ हाँलाकि उस समय उसकी औकात 120 रू०
की भी नहीं थी/ वह नौकरी भी न करता था, कोई
खूबसूरत भी नहीं था/ पर उसके पापा को पटाने में
कामयाब हो गया था/ घर के अंदर और बाहर न
अकेले न ही संध्या के साथ ही कभी देखा था/
उससे परिचय होने की कभी कोई मौका भी मेरे
हाथ न लगा था/
अगर जान्हवी के पापा ने चाहा होता
तो उनकी शर्तों पर मैं भी खरा उतरता/ कारण कि
उनकी चारों लड़कियों में जान्हवी सबसे खूबसूरत थी,
पर दामादों में खूबसूरती में मैं किसी से कम न था/
उसके चाचा जी तो पी कर कहीं सड़क या घर में अपने कमरे में लुढ़के होते थे पर उसके पिताजी बिना
पिए ही न जाने किस सुरूर में गर्वित रहा करते थे/
120 रू० की बात ही कुछ इस तरह शायद उनके पास पहुँची थी कि मेरे लिए ही जानबूझ कर जान्हवी
के कमरे में आए थे और मुझे आने से मना किया था,
पर वो ये समझ भी न सके कि 120 रू० स्टाइपेंड थे,
वह मेरी कोई तनख्वाह नहीं थी और वो ज्यादा से
ज्यादा साल भर के लिए ही थी/ पढ़ाई के साथ मुझे
पाकेट खर्च भी मिल जा रही थी/ इसका उनकी नजरों
में कोई औचित्य नहीं था/
उन लोगों तक अपनी नौकरी लगने तक
यह रहस्योद्घाटन मैं किसी शुभ मुहुर्त के इंतजार में ही
रखना चाहता था/ संध्या के इतने समर्पण भाव के
बावजूद मैं उसे अपने साथ बँधे रहने को नहीं कह सकता था/ जान्हवी मिले न मिले, संध्या को अपनाने
में उसका बाप नीचताई की हर हद पार कर जाता/
सन्ध्या ने एक बार, जब मैं ऊपर छत पर
बैठा था और अकेला था, मुझसे कहा था कि जिससे
उसके पापा का मेरी शादी को लेकर कमिटमेंट है,
उसका पैर अपेक्षाकृत बड़ा था/ मैं समझ गया कि
उसने यह बात मुझसे क्यूँ कही थी/ उसके बाप ने
अपनी शर्तें तो जमाई राजा को बता दी थीं, पर उसकी शर्तें नहीं पूछी थी/
जब मैं उसके बाप से जान्हवी के लिए
ही भिड़ने से कतरा रहा था तो फिर संध्या को भगा
ले जाने में अपने को असमर्थ पा रहा था, जान्हवी
भी मेरे साथ जाने को तैयार नथी/ अपने बाप के समक्ष उसकी खामोशी मेरे लिए नजीर थी/ संध्या में
मैंने सागर की गंभीरता देखी थी पर जान्हवी के प्यार
का उफान उथले हुए समंदर की तरह छिछला था/
समंदर की लहरों से सिर्फ दिल ही बहलाया जा सकता था, उसे पिया नहीं जा सकता था/ प्यार का
मोती तो कही सागर की गहराइयों में ही पाया जा
सकता था/
लिहाजा मैंने जान्हवी से बात करने की
सोची और सन्ध्या को उसके कमरे में बुलवाया/ और
उससे यही पूछा कि उसके होते हुए उसका विकल्प भी ढूँढ़ना चाहिए, क्यूंकि वह मेरा साथ लगता है कि
नहीं देगी/ उसने संशंकित नजरों से सन्ध्या की तरफ
देखा और मुझसे पूछा कि क्या उसके प्यार पर मुझे
कोई शुब्हा है क्या/ तो फिर तुम अपने पापा से खुल
कर अपने दिल की बात क्यों नहीं करती/ जिन्दगी
पहले है कि पढ़ाई पहले है, जिन्दगी (प्यार ) ही न
रही तो पढ़ाई का क्या अचार डालोगी-- मैंने कहा/
वह बोली--- पापा मुझको आपको लेकर अभी गंभीर
नहीं हैं, न ही अभी मेरी शादी की उन्हें कोई जल्दी है/
मैं जानती हूँ कि पापा मेरा भला ही सोचेंगे/
इस जवाब से मैं स्तीभर आश्वस्त नहीं हुआ/ मुझे संध्या की बात में सच्चाई का आभास
होने लगा था/ जान्हवी खुले तौर पर पापा का पक्ष
ले रही थी कि उसके पापा उसका भला ही सोचेंगे/
मैंने फिर पूछा---- क्या वे तुम्हारी शादी 120 रू० वाले से करना कभी पसंद करेंगे/ इस बात पर बिना
किसी हिचकिचाहट के जैसे उसने कोई निर्णय कर
लिया हो बोली--- कर भी सकते हैं और शायद नहीं
भी/
फिर मुझे उससे कोई प्रश्न नहीं पूछना था,
मैं समझ गया कि वह मुझे धोखा देगी/ अब विकल्प का तो क्या मैं सचेत होकर सिर्फ और सिर्फ संध्या के
बारे में ही सोचने लगा और जान्हवी के घर जाना छोड़ दिया/

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