Tuesday, December 23, 2025

जिन्हें हम भूलना चाहें ( संस्मरण) किश्त(३)

जिन्हें हम भूलना चाहें  ( संस्मरण)
             किश्त(३)
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                 प्रिय पाठक गण! पहले तो इस संस्मरण
को आगे लिखने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी,
क्यूँकि कहानी ने कुछ अनजान और अनिश्चित सा
मोड़ ले लिया था पर अपने चिंतन शील सहयोगी के
हिम्मत बढ़ाने और ढाढ़स देने की पुरजोर सिफारिश
के बाद में इसे लिखने का प्रयास कर रहा हूँ/
                  यह स्वीकार करते हुए कुछ खेद, इस
बात का हो रहा है कि आपको मैं मैं पहली और
दूसरी किश्त की ओर फिर वापस ले जाने को
विवश हुआ हूँ/ विस्तार भय के कारण मैंने इसे
संक्षिप्त करना चाहा था पर कुछ घटनाएँ, जो कहानी में एक नया मोड़ ला सकती हैं, अछूती रह गई हैं, उन्हें
मैं जीवन दान प्रदान करने की प्रक्रिया की ओर
अग्रसर हुआ हूँ/
                   दूसरी बात, इस कहानी का श्रीगणेश
सन 1975 में हुआ था और इस सलिल की सरिता कुछ रुकावटों के बावजूद अभी भी अबाध गति से
आगे की ओर बढ़ी जा रही है/ कुछ घटनाओं में आपको व्यतिक्रम का आभास ले सकता हूँ/ कारण
कि इतने समय के अंतराल में कहानी के कुछ पात्र
जी जी कर भी मरने को मजबूर हुए हैं और घटनाओं
का क्रम भी बदल सा गया है, जो मेरी अंतरंग चूक
है/ आशा है आप मेरी मजबूरी आप समझेंगे तथा
इसे अन्यथा न लेंगे/
                        हाँ तो प्रिपरेशन लीव के अंत में एडमिट कार्ड लेने तक तो मैंने लिखा था पर उसके
पहले भी मेरी और जान्हवी की कई मुलाकातें हुईं,
कुछ घर पर कुछ यूनिवर्सिटी में/
                          कारण खासतौर पर पही था
कि मैं शुरू से ही क्रंतिकारी विचारधारा से अभिभूत
रहा/ ज्यादा स्पष्ट करूँ तो मेरी जन्मभूमि और
कर्मभूमि इलाहाबाद में" सर्वोदय संस्था" थी, जो अपनी मीटिंग्स और नई विचार धाराओं के लिए
" नगर स्वराज्य" नाम की पत्रिका निकालती थी/
उक्त संस्था के संचालक डा ० बनवारी लाल शर्मा थे,
जो उस समय इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के मैथ्स
डिपार्टमेंट के प्रोफेसर थे तथा अपनी व्यस्तता के
बावजूद गाँधी भवन के आनरेरी डाइरेक्टर भी थे/
उनसे मेरा संपर्क उनके एक स्कालर के जरिये था/
वे लोग गाँधी जी के आदर्शों तथा कार्यों का प्रसार-
प्रचार करने में तत्पर रहते थे/
                  जय प्रकाश नारायण जी का" संपूर्ण
क्रांति" का जब बिगुल देश भर में बजा तो उक्त
सर्वोदय संस्था उसी क्रांति का एक अक्षण्ण अंग हो गई/ इलाहाबाद में संपूर्ण क्रांति के संचालक डा०
शर्मा जी रहे/ उनका उत्साह और साहस अतुलनीय था/
                    इलाहाबाद के" प्रयाग महिला विद्यापीठ " का प्रांगण और कमरे" अखिल भारतीय
सम्मेलन" के लिए, बाहर के आने वालों से पूरी तरह से शोभायमान हो उठा/ प्रबुद्ध वर्ग----- टीचर्स,
प्रोफेशर्स, कितने ढेर सारे अनगिनत नौजवानों सभी
ने उसमें कार्यकर्त्ता के रूप में शामिल हुए/ प्रमुख
वक्ताओं में स्वयं नारायण जी तथा अन्य महानुभावों का अभिभाषण वंदनीय रहा/ रोज मीटिंग्स होतीं/
किसी से कोई चंदा नहीं मांगा गया था/ सभी अपने-
अपने घर से, जिससे जो बन पड़ा---- आटा, दाल,
चावल, घी तथा सब्जियाँ रोज लाते और रोज
आगंतुकों तथा अन्य सभी कार्यकर्ताओं के लिए
नाश्ता और खाना तैय्यार करवाया जाता/ जमीन
पर पत्तलें बिछाई जाती और सभी नीचे बैठ कर
भोजन ग्रहण करते/ परोसने वाले हम लोग थे ही/
स्टेशनस से लेकर हर काम के लिए कार्यकर्ताओं
की अलग- अलग टोलियाँ बनाई गई थीं/ हफ्ते भर
यह सम्मेलन सुचारू रूप से चला/ इसके बाद ही लखनऊ शहर में भी यह आयोजन किया गया/
मैं अपने साथियों के साथ हफ्ते भर लखनऊ में
रहा/
                मेरे प्रबुद्ध वर्ग के सहयोगी उस वक्त से गिरफतार किए जाने लगे/ मैं तब इलाहाबाद 
पालिटेक्निक कालेज से डिप्लोमा कर रहा था तथा
साथ ही साथ इंजीनियरिंग का नाइट क्लास भी
अटेन्ड करता था/
                 इमरजेन्सी का यह प्रकोप देख कर मेरा
मन अनियंत्रित हो गया और हृदय कंपित होने लगा/
लिखना मैंने सन 1970 से ही शुरू कर दिया था, अब
मैं सजग होकर लिखने लगा/ नगर स्वराज्य पत्रिका ने मेरी कोई कविता नहीं छापी पर मेरी एक कविता---
गीदड़ की मौत आती है तो शहर की ओर भागता है--
की साथियों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की/ उन्होंने बताया
कितने लेखक कवि अब तक हवालात पहुँच चुके हैं,
जो लिखते हैं अंडरग्राउन्ड होकर लिखते हैं और
स्वतंत्र लेखन से वे भी परहेज करते हैं/
                   तुरंत मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई को
तिलांजलि दी और कानपुर यूनिवर्सिटी से प्राइवेट बी०ए का फार्म भर दिया/ मेरी दिली तमन्ना थी कि किसी तरह जल्द से जल्द मैं ग्रेजुएट हो जाऊँ और
फिर देश और दिशा की तरफ आँखे करूँ/ तब तक
देश में सत्ता का परिवर्तन हो चुका था और मैंने अपनी
पढ़ाई जारी रखने के लिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में 
एम०ए०/ हिन्दी प्रथम वर्ष में दाखिला लिया/
                       उसके दूसरे दिन मेरे पिताजी ने मुझसे कहा कि यदि नौकरी करना हो तो आफिस आ
जाऊँ/ मैं समझता था कि पढ़ाई तो अनलिमिटेड है पर नौकरी का अवसर छोड़ना उचित नहीं होगा/
सो मैं आफिस चला गया और मेरा नाम मस्टररोल में इनरोल्ड हो गया/
                       12 से 3 बजे तक यूनिवर्सिटी में मेरे 
क्लासेज होते थे/ पौन बारह बजे मैं आफिस छोड़ देता था और सवा तीन बजे तक वापस आफिस आ
जाता था/ वहाँ क्लास में मेरे दो सहपाठी शरत मिश्रा और सत्यनारायण चौरसिया गहरे मित्रों में थे तथा दो और जिनसे घनिष्ठता बाद में स्थापित हो पाई/
                          यह मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि किस तरह जान्हवी से मेरी मुलाकात हुई और इसके बाद मेल जोल इस कदर बढ़ा कि हम दोनों एक दूसरे
का हो जाने को तत्पर हो गए/
                            इस दरमियां एक मुख्य वाक्या यह हुआ था कि जान्हवी जब मेरे ऊपर अर्थ समझने के लिए झुकी, उसकी साँसे और उच्छवास सीधे मेरे
मुँह पे आई और प्रेमाधिक्य से मैंने उसे चूम लिया था
और फिर वह मुझसे लिपट गई थी/ यह सब सहसा, अप्रत्याशित और आह्लाद भरा था कि मैं शब्दों में
उसका वर्णन नही कर सकता/
                          मैंने उससे बाहर चलने को कहा
तो वह कुछ जवाब न दे बैठी ही रही/ प्रिपरेशन लीव
चल ही रही थी/ इस तरह हम रोज मिलते और
खुल्लम खुल्ला प्यार का प्रगटीकरण करते और
परस्पर मिलन का हम दोनों का आग्रह होता था/ में ज्यादा कुछ आगे यह सोच कर आगे न बढ़ा कि
मेरे जैसे उसको लाखों मिलेंगे पर उस जैसा हसीं पता नहीं मेरी तकदीर में है भी अथवा नहीं/ उसके द्वारा
किए गए वादे मुझे छलावा लगते थे/

किसी बात को अतिश्योक्ति में
                          लिखना मेरी आदत नहीं,
और हकीकत की जमीन छोड़ना
                           मेरी चाहत नहीं/
कभी- कभी न चाहते हुए भी
                            लिखना मजबूरी होती है,
और हर बात को सिरे से लिखने की
                             भी मेरी हसरत नहीं//

                      पहली बार जब मैंने जान्हवी से नोट्स
मांगे थे तो एक अजीब बात हुई थी/ उसके रजिस्टर के पहले पेज पर एक मेरा लिखा शेर लिखा हुआ था/

             सितारों में चाँद है तू,
             गुलों में गुलाब है तू,
              मेरे लिए जामे- शराब है तू,
              कितनी भोली औ नादान है तू//

                           उसने यह शेर शायद अपने भाई
प्रभात को दिखाया था/ और वह मजे ले लेकर ऊपर की दो लाइनें मुझे सुनाया करता था/ और भाई साहब
आगे क्या है, मुझसे पूछा करता/ मैं समझ गया कि
जान्हवी ने अपना प्यार और साथ में अपनी कमजोर नस प्रभात को पकड़ा दी है/ मैं समझ गया कि वह
सतर्क और चौकन्ना ले गया है क्यूँकि जान्हवी ने उस
पर अपना प्यार, दिल का हाल बयां कर दिया है पर
मैं इस बात से उसकी ओर से निश्चिन्त था कि वह
इसका गलत प्रयोग नहीं करेगा/ मैं समझ नहीं पा रहा था ब्लैक बोर्ड पर लिखा मेरा वह शेर क्या वास्तव में
क्या सिर्फ जान्हवी ने कापी पे उतारा होगा/ पर मैं सिर्फ जान्हवी को ही जानता थे, जिसे मेरे शेर इस कदर पसंद थे/ 
                      प्रभात मेरे चौराहे से दाईं ओर आधे
फर्लांग के फासले पर अपनी नानी के साथ, नानी के
घर में रहता था और जान्हवी का घर मेरे घर से दो चौराहे दूर कीडगंज में चौराहे से बाएँ मुड़ने पर था/
                       जब मैं और जान्हवी कमरे में बैठे थे
तो बिना कोई पूर्वसूचना, बिना किसी दस्तक, बिना
खाँसे- खरारे उसके पिताजी कमरे में घुस आए और
मुझे वहाँ आने के लिए मना किया तथा आगाह किया
कि उनका छोटा लड़का कुछ कहेगा तो खुद समझिएगा/ उनको पहली दफा मैंने देखा था/ उनकी बात का मतलब मैंने यही निकाला कि विकास से
सावधान रहना होगा और बड़ा लड़का प्रभात तो कुछ
कहेगा ही नहीं/ बिना मेरा परिचय पूछे ही वो लौट गए/
                         एक बार मेरे मन में आया कि जान्हवी को वहाँ से लेकर अपने घर आ जाऊँ पर
संशंकित था कि वह मेरे लिए अपने बाप से बगावत
करेगी/ क्योंकि वह अपने बाप से नजर भी नहीं मिला पा रही थी और न ही उसने मेरा पक्ष लेकर कुछ कहा
ही/
                        उसका छोटा भाई विकास निःसन्देह
उग्र स्वभाव का था, जिसके बारे में प्रभात ने बताया था, जो करिएगा उससे बचा कर करिएगा/
                        इस दौरान जान्हवी और सन्ध्या कई बार मेरे घर आईं, कभी नोट्स लेने, कभी बात करने तो कभी यूँ ही किसी न किसी बहाने/ मेरे घर वाले उन्हें अच्छी तरह पहचान गए थे/ नहीं पहचानता था तो मेरे बगल के मकान का किराएदार/ जब जान्हवी और संध्या मेरे कमरे मे होतीं तो वह अपने बरामदे
से उचक-उचक कर, मेरे अहाते के अंदर से मेरे कमरे
में झांकने की कोशिश करता/
                          मैंने उसकी नजर को समझा- परखा तो उसमें लुच्चई स्पष्ट नजर आई/ सुबह-
सबेरे जब मैं व्यायाम के लिए अपनी छत पर जाता
था तो अपनी छत पर वह उठक-बैठक कर रहा होता,
कभी दंड पेल रहा होता तो कभी डम्बल या मुग्दर
भाँजते मिलता/

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ROM ROM SE KARUNAMAY, ADHARO PE MRIDU HAAS LIYE, VAANI SE JISKI BAHTI NIRJHARI, SAMARPIT "RATAN" K PRAAN USEY !!!