जिन्हें हम भूलना चाहें ( संस्मरण)
किश्त(१)
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जान्हवी का कमरा सर्वथा निरापद नहीं था/ कभी भी किसी के आने का खटका बना रहता था/ सड़क की तरफ खिड़की खुलती थी, जो प्रायः
बंद रहती थी और दरवाजा बरामदे में खुलता था/
मेनगेट से बरामदे में प्रवेश करके, घर में
घुसने से पहले बाईं तरफ उसका कमरा पड़ता था/
उसके कमरे से सभी आगंतुकों या घरवालों को आसानी से देखा जा सकता था/
मैं जान्हवी के साथ बैठ कर अक्सर कबीर, सूर, तुलसी और काव्यशास्त्र पढ़ा करता था/
सूर ग्रंथावली का भ्रमर गीत उसे बेहद पसंद था और
उस पर उसकी मजबूत पकड़ थी/ भ्रमरगीत के कुछ
अश्लील शब्दों के अर्थ उसने मुझे बताए थे, जिनके
विषय में मैं अनभिज्ञ था/
गौरतलब बात ये है कि मैं चारपाई पर, खिड़की की टेक लिए, अधलेटा होकर पढ़ता था और
वो मेरे बगल में कुर्सी पर बैठ कर पढ़ा करती थी/
अर्थ समझने में कभी असमर्थता दिखा कर , वो बिल्कुल मेरे ऊपर झुक आती थी, जिससे
मुझे उसकी साँसों की रफ्तार का आभास प्रत्यक्ष हो
उठता था/
उसका लिबास यूनिवर्सिटी में भी बहुत सादा होता था/ बदन पे सलवार-कुर्ता और गले में
पारदर्शी काला दुपट्टा/ हाँ उसकी अलकें, उसके गोरे
चेहरे पर तथा कंधों पर झूलती- नाचती रहती थीं और उन्हें वह हाथ से यथास्थिति सुव्यवस्थित कर देती थी/
मेरे मुँहलगे मित्र उसे " जायसी की पद्मावती" कह कर
मेरे सामने उसकी प्रशंसा करते थे/ उसकी नाक में नथ शोभायमान थी और उसकी सुंदरता में चार चाँद
लगाती थी/
जान्हवी की छोटी बहन का नाम संध्या था/
उसका जिक्र यहाँ इसलिए कर देना जरूरी समझता
हूँ कि जैसे " ताश के गेम में पपलू का आगमन"/
जहाँ तहाँ उचितानुचित का ख्याल किए बिना वो मेरे
जीवन में आकस्मिक प्रवेश कर जाने की कला वही
जानती थी/ जान्हवी दहकता हुआ सूरज थी, तो संध्या चाँद की चाँदनी/
सन्ध्या, जान्हवी की तरह एकदम श्वेत गौरवर्णा न थी पर उससे कम भी नथी/ जान्हवी
सुंदरता में बीस थी तो वह भी उन्नीस न थी/ वह मेरी
आवाज की कद्रदां थी और अपने छोटे भाई से, जो
बाद में मेरा दोस्त बन गया था, कहा था कि भाई साहब की आवाज में तीव्र कशिश है और मेरे दोस्त
ने यह बात मुझसे कही थी/ यह बात सुन कर मैं
सहसा गर्व से नहीं भर उठा पर संध्या की बात की गहराई को सोचने पर विवश हो गया था/
मेरी और जान्हवी की पहचान पुरानी न थी/ यूनिवर्सिटी में ही दोस्ती हुई थी/ एम०ए०( हिन्दी)
प्रथम वर्ष की इम्तहान के लिए प्रीपरेशन लीव होने को
थी/ दो- तीन दिन मैं यूनिवर्सिटी नहीं जा पाया था/ इधर बीच के प्रोफेसर्स के लेकचर्स मेरे पास नहीं थे/
मैं सोच नहीं पा रहा था कि मेरे नोट्स कैसे पूरे होंगे/
क्लास के अन्य मित्रों से माँग कर मैं निराश हो गया था/ मैं अपने खास दोस्त शरत् के साथ कैंपस में खड़ा
था और कुछ दूरी पर जान्हवी अपनी सहेलियों के
साथ खड़ी थी तथा वे आपस में कुछ रहस्य भरी
गुपचुप बातों में निमग्न थीं/
मैंने जान्हवी का नाम लेकर उसे पुकारा और वह अपनी सहेलियों को छोड़कर मेरे पास आई/
मैंने उससे छूटे हुए नोट्स माँगे/
उसने ये बताया कि नोट्स उसके घर पर
हैं और मैं उन्हें वहीं से ले लूँ/ जब मैंने उसका पता पूछा तो उसने मेरी कापी पर अपना पूरा पता लिखा
और लोकेशन भी पूरी तरह समझा दिया/ और वो मेरी
और उसकी यूनिवर्सिटी का आखिरी दिन था/ उसके
बाद प्रीपरेशन- लीव शुरू हो गई थी/
उन दिनों मोबाइल या पी० सी० ओ० का
जमाना न था/ पूरे मुहल्ले में किसी के घर लैंड- लाइन
होना ही उसकी खुशकिस्मती मानी जाती थी/
पहली बार जब मैं ढूढ़ते- ढूँढ़ते जान्हवी
के घर पहुँचा तो लहुलुहान सूरज अस्ताचलगामी था/
जान्हवी के बजाय सामना सन्ध्या से हुआ और वह
अपनी बड़ी बहन को इत्तला करने गई/
भागी-भागी जान्हवी आई और मुझे अपने
कमरे में बिठा कर संध्या को चाय के लिए कहा/ बातचीत करते और चाय पीते हम लोगों को करीब एक घंटा बीत गया/ सन्ध्या भी हम लोगों की बात
का एक हिस्सा बन रही थी/ मैंने चलने को कहा और
नोट्स के लिए जान्हवी का याद दिलाई तो वह बोली,
" क्या आप उसे कल नहीं ले सकते? उसे फेयर कापी
में लिखने का और आपसे कल भी मिल पाने का मौका मिल जाएगा/" इस पर संध्या भी बोल पड़ी,
" हाँ भाई साहब नोट्स कम्पलीट रहेंगे तो आपको भी
सुविधा होगी/"" ठीक है, मैं कल ही नोट्स ले लूंगा",
कह कर चला आया/ लौटते वक्त सायकिल के पैडिल
पर मेरे पैर नहीं जम पा रहे थे/
मैं उसी समय दूसरे दिन भी गया तो आज
सन्ध्या के साथ- साथ जान्हवी की माता जी भी प्रत्यक्ष हो गईं/ चाय के दौरान उन्होंने कहा," नोट्स तो
आप यहाँ भी बैठ कर जान्हवी के साथ पूरा कर सकते हैं, बेहतर होगा आप यहीं पर लिख लीजिए/
आपके समय की भी बचत होगी/" इस पर संध्या बोली, " हाँ भाई साहब यहीं बैठ कर नोट्स पूरे कर
लीजिएगा"/ मैं बोला," पर मैं यूनिवर्सटी के समय पर
ही आ पाऊँगा, उसी वक्त मुझको समय मिलेगा"
इस पर जान्हवी ने मुझसे कहा", नोट्स तो मैं अभी
आपको दे दूँ, पर आपके नोट्स देखने की जिज्ञासा
मेरी बनी ही रहेगी/" मैंने कहा ठीक है कल दिन में 12 बजे अपने नोट्स लेकर खिदमत में हाजिर होता हूँ/
मैं समझ पा रहा था कि यह मुझे रोज बुलाने का बहाना है/ मुझको भी जान्हवी का बहाना अच्छा लगा/
तब मैं स्थानीय" पावर हाउस" में
अप्रेन्टिश शिप कर रहा था, जो साल भर का था और
स्टाइपेन्ड के तौर पर 120 रुपये महीने के मुझे मिलते
थे/ पढ़ाई के साथ- साथ एक तरह का मुझे पाकेट खर्च मिल जा रहा था/
जान्हवी के साथ- साथ मेरी पढ़ाई शुरू
हुई तो हमारी मुलाकातें भी बढ़ गईं और यहीं से हमारे
प्यार का श्रीगणेश भी हुआ/
जान्हवी का रुख समझ कर उसकी माता
जी ने भी मुझमें इन्टरेस्ट लेना शुरू किया/ मुझसे यह
पूछा गया कि मैं चारपाई पर अधलेटा क्यूँ रहता हूँ?
तो मैंने अपने जीवन की वह सत्यघटना उनसे दुहरा दी कि मेरी सायकिल और एक मोटर सायकिल सवार की बनारस के एक अंधे मोड़ पर जबरदस्त टक्कर
हो गई थी, जिसकी वजह से मैं इस पोजीशन में आराम महसूस करता हूँ/ हाँलाकि अब उस एक्सीडेंट
का अब मुझ पर कोई असर नहीं है/
मुझे लगा मेरी कमाई सुन कर जान्हवी आहत थी पर इसका जिक्र बहुत बाद में उसने मुझसे
किया/
जान्हवी से एक मुलाकात, जो हमेशा उसके कमरे में ही हुई, उसने मुझसे बताया कि उसके
पापा उसको मेरे पास आने को मना करते हैं/ कहते हैं कि राजीव 120 रू० ही तो पाता है/ जान्हवी ने बताया कि उनके मना करने पर भी मैं आपके पास
आई हूँ/
इस समय मैं यह सोच रहा हूँ कि उस समय
का मेरा यह रहस्योदघाटन जान्हवी और उसके घर वालों पर कितना भारी पड़ा होगा/ मुझे वो अपनी लड़की देने की सोच भी कैसे सकते थे/
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