" मुझसे भारी मेरा बस्ता" लेख का शेष अंश
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स्वामी विवेकानंद देश की धर्मपताका फहराने अमरीका गए थे/
आधुनिकता के नए परिप्रेक्ष्य मे युवक-युवतियाँ अपनी हानि को भी लाभ मानने के लिए मानसिक तौर पर पंगु हो चुके हैं/ ब्रहम्चर्य का पालन किसी से नहीं हो पा रहा है, जो कि अर्वाचीन भारत की पहली अनिवार्यता है/ सर्वत्र झूठ का
बोलबाला है/ वायदे तक झूठे किए जाते हैं/ पहले के लोग वादा निभाने के लिए अपनी जान तक दे देते थे पर अब समय बदल गया है, जो जितनी बड़ी वादाखिलाफी कर सके वो ही सबसे बड़ा नेता/
क्या हम- आप अपने बच्चों को इसकी वास्तविकता से परिचित करा कर, उन्हें मानसिक रूप से परिपक्व बनाने में
ऋषि- महर्षियों के दिए गए मूलभूत सुझावों को आत्मसात करेंगे और टी० वी० और मोबाइल जैसे अनावश्यक और समय खाऊ संसाधनों से, कम से कम अपने बच्चों को, भविष्य में कुछ अच्छा कर गुजरने योग्य बनाने की महत्वाकांक्षा से राष्ट्र को अनुग्रहित करेंगे/ समाज आपके ही इंतजार में टकटकी लगाए आपकी ओर देख रहा है कि आप एक कदम इस दिशा में आगे
बढ़ाएँ तो लाखों कदम आपके पीछे निकलेंगे/
हमारे-आपके बच्चों में भारी बस्ते के कारण कमरदर्द, रीढ़ की हड्डी का आगे की ओर झुकाव तथा कंधे में दर्द की
असह्यता परिलक्षित हो रही है, जो बचपन की पढ़ाई से लेकर नौकरी की उम्र तक तथा आगे भी कंधों पर लैपटाप, टिफिन,
किताबें- काँपियाँ तथा पानी की बाटल, बस्ते में लाद कर, जूतों के फीते कस कर, पूरी तरह से लैस होकर हमेशा चुस्त-दुरुस्त
बने रहना क्या संभव है? अब तो शुद्ध पानी भी बाटल्स में कैद है और बिकाऊ है, जो सबके लिए सहजता से प्राप्त नहीं है और साधारण पानी बीमारियों का गढ़ है/ हमारा कर्तव्य है कि उन्हें शुद्ध वातावरण उपलब्ध करायें और प्राकृतिक छटा से
उनका संबंध जोड़ें/
अमेरिका जैसे विकसित देश में बच्चे दवाई चने- मूँगफली की तरह खाते हैं/ सुबह, शाम तथा रात की दवाई की
पुड़िया उनकी जेबों में रहती है/ अपेक्षाओं के कारण वे मनोरोगी हो जाते हैं और कम उम्र में ही साइकेट्री के शिकार हो जाते हैं/ हमको चाहिए कि शिक्षा को स्फूर्तिदायक, आनंददायक और व्यवहारिक बनाने की दिशा में स्वयं भी अग्रसर हों और दूसरों
को भी आगे आने के लिए प्रेरित करें/
हमें अपने व्यस्त समय से थोड़ा समय बच्चों को भी देना चाहिए, क्यूँकि वे ही देश के भावी कर्णधार हैं/ हमें सोचना चाहिए कि उनके" कंधों का बोझ वह भारी बस्ता" बच्चों को मुक्त उड़ान भरने के लिए पंख सुलभ करवा रहा है
अथवा उनकी सारी जागरुकता को छिन्न- भिन्न कर और ज्यादा जमीन से बाँध रहा है/
विश्वास मानिए विकसित देश इस आधुनिकता से अब ऊब चुके हैं और शान्ति की खोज में वे" विश्वगुरु भारत" की
ओर उत्सुकता से देख रहे हैं/ हमारी संस्कृति हमें" वसुधैव कौटुम्बकम्" की प्रेरणा देती है और विभिन्न देशों के लोग ये जानते हैं कि विश्वगुरु भारत उन्हें अपना शिष्य बना कर आत्मसात कर ही लेगा/
(८) उपसंहार( लेखक का विद्यार्थियों से अपील)
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मुख्य बातें वही हैं, जो आपके अभिभावकों से बतला चुका हूँ/ मेरी आप सभी से यही अपील है कि अपनी पसंद को महत्व देकर आगे बढ़ें, इसी तरह आप सफल होंगे और स्मार्ट- फोन से फायदे कम नुकसान ज्यादा है/ मेरे पूरे लेख का
सार यही है, जिससे कदम गलत दिशा में भी उठ सकते हैं/ सिर्फ आप लोगों के लिए ही कवि ने पुकार लगाई है:--
पर्वत कहता शीश उठा कर, तुम भी ऊँचे बन जाओ,
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सागर कहता लहरा कर, मन में गहराई लाओ/
समझ रहे हो क्या कहती है, उठ-उठ, गिर-गिर तरल तरंग,
भर लो अपने जीवन में मीठी- मीठी मृदुल उमंग/
पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो, कितना ही हो सर पे भार,
नभ कहता फैलो इतना तुम, ढ़क लो सारा संसार//
जीवन में कुछ बन जाने पर अपने अभिभावक को भूल न जाना
उनका अपने जीवन में योगदान सदा-सर्वदा स्मरण रखना//
राजीव" रत्नेश"
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