Wednesday, November 5, 2025

सावन में झूले पड़ेंगे जब-- कविता

जानता हूँ, इक दिन तू खुद मेरे पास आएगी ही,
मुहब्बत की कशिश तुझे खींच के लाएगी ही/

तेरी आँखों के कटोरे से, दो- चार घूँट चढ़ा ली मैंने,
आकर मेरी राहे-मुहब्बत में, जन्नत का मजा दिलाएगी ही/

जाते-जाते भी पलट जाती है, अपना चेहरा दिखलाती है,
कभी भरपूर नजरों से देखकर सामने से भाग जाती है/

मुझे कोई जल्दी नहीं, इंतजार ही तेरा, है काम मेरा,
अबकी आ तो इतनी पिला, ताउम्र उतरे न चढ़ा नशा मेरा/

मुंतजिर हूँ तेरी मुहब्बत का, दिल हवाले कर जा,
अबकी दिमाग लगा के आना, न चाहते हुए तेरी नजर उठेगी ही/

समंदर की लहरें रहती हैं बेताब चाँद से मिलने को
वह रहता हमेशा बादलों के बीच, खलता है उसका ओझल होना ही/

 अजनबियों की सियासत में फँसी, मेरी रियासत की राजकुमारी,
अच्छा लगता है तेरी निगाहों से पीना, ये मेरी लाचारी ही सही/

कभी तो मुहब्बत मेरी, तेरे सर चढ़ कर बोलगी ही,
तुम आओगी नहीं तो पयामे- मुहब्बत भिजवाओगी ही/

सावन में पड़ेंगे जब झूले, बागों में पेंग मारने आएगी ही,
मुझसे भी लंबी पेंग बढ़ाने को पूरा जोर लगाएगी ही//

            राजीव" रत्नेश'
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