मुझको पलकों पे बिठाने की बात करती हो ,और क्या कहूँ ,
अपनी मेहरबानी से ,अपनी बात में खुद उलझ जाती हो।
तुम भरम ही भरम में खो गई ,बताओ तो किस हाल में हो ,
पूछा न कभी भाई से तुम्हारा हाल ,बेहाल में खुद उलझ जाती हो।
मर्ज़ी कुछ न थी हमारी ,मेरे दिल ने बना लिया था तुम्हें अपना ,
एक तो दिल की बीमारी मेरी तौबा ,खुद सुलझती हो ,खुद उलझ जाती हो।
क्या तुम छोड़ोगी अकेला हमें ,अपनी मंजिल की राह में ,
हम अकेले बहुत हैं ,क्यूँकि तुम अपनी बात में खुद ही उलझ जाती हो।
हम तेरे ही मुसाफिर हैं ,तेरी किश्ती में सवार हैं ,आ जाओ
हिमाकत दिल से क्या होगी ,पास आकर जो उलझ जाती हो।
जज्बात से न खेलो , मछली अभी सागर में होगी ,किनारे बैठेंगे ,
पास आकर सहारा बनो ,जाने किस बात पर खुद उलझ जाती हो।
हम तेरी महफ़िल में आएँगे तो कमंडल से रोशनियाँ फूटेंगी ,
हम तुमको क्या समझाएँगे ,तुम अपनीबात पर खुद अड़ जाती हो।
चली आना महफिल में ,हम औरों से निपट लेंगे ,
ख्वामख्वाह अपनी बात में खुद उलझ जाती हो।
---------राजीव रत्नेश -------------
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