बहुत लुत्फ़ उठा मोह्हबत का ,
तेरी रजाई में गरमाते रहे
तू रसोई में ,खाने -पीने की बड़ी शौक़ीन है तू ,
सख्त जान ,सख्त दिल ,बड़ी पारसाई है तू।
शोला परवान उठा मोह्हबत का ,
दिल दिया तुझे अनजाने में ,
किरदार किया फलसफे में ,
मेरे ख्यालों से भी ज्यादा खूबसूरत है तू
अरसा गुजर गया तुझे आजमाने में
मैं कायल नहीं ,तेरी मोह्हबत का ,
बेफिकर होकर लूटा मज़ा तूने रजाई में ,
खुश थे हम भी तेरे साथ ,तेरी रज़ाई में ,
आफत में जान रही ,तुझे आजमाने में
आयी थी अपनी मर्ज़ी से मेरी रजाई में
मैं शौक़ीन नहीं तेरी मोह्हबत का ,
पारसाल की तरह आ जाना एक बार
करते रहेंगे सालों -साल प्यार तुझे रज़ाई में ,
आओगी फिर से ,दिल को है एतबार ,
एक बार फिर मेरी रज़ाई में।
मज़ाक उड़ाओ नहीं अनजान मेरी मोह्हबत का ,
अब भी हूं तेरा ,एक बार आजमाओ तो ,
करीब आकर कान में कुछ कहो तो ,
जख्म जो तूने दिया है ,आके सहलाओ तो ,
सहरा में तुझे ही ढूंढता हूँ ,सामने आओ तो ,
तुझे सहारा नहीं रहा ,लगता मेरी मासूम मोह्हबत का।
एक अनजानी डगर पे ,बाप के डर से निकली है ,
ये रास्ता भी तूने खुद ही चुना अपने लिये चुना है ,
हस्ती -ए -दिल से भुला चुका हूँ कभी का तुझे ,
दर्दीली मोह्हबत को तूने तमाशा बनाया है।
मुझे भी अब आसरा नहीं रहा अपनी मोह्हबत का।
बेदर्द मुसाफिर राहे -मंजिल का हूँ ,
तुझे सहारा अब क्या मैं दे सकता हूँ ,
एक बार आवाज देती तो समझता ,
कितनी दूर तक साथ निभाती मेरा।
मुझे जवाब नहीं चाहिये ,तेरी मोह्हबत का।
सदा देते -देते तेरी मंज़िल पीछे छूट गई ,
तू आगे बढ़ गयी ,जमाना पीछे छूट गया।
आज भी तेरी याद दिल को सताती है ,
कब तक आवाज देता तुझे ,पीछे छूट गया।
मुझे चाह नहीं ,अब तेरी मोह्हबत का।
सूनी -सूनी नज़रों से ,तेरी मोह्हबत आँकता हूँ ,
पहले मेरी थी ,अब किसकी है मालूम नहीं
ओझल हो गयी कहाँ ,रही सितारों की चादर भी नहीं ,
तुझे दिल में क्यों बसाते ,दगा तूने दिया है।
यही किस्सा रह गया है ,बर्बाद मोह्हबत का।
खुद पास आओ ,दिल से दिल मिलाओ ,
'रतन 'अब भी तुहारा है ,फिर से नज़रें उठाओ ,
मोह्हबत का दीप दिल में जलाओ
एक बार और रतजगा करके रास्ता परखेंगे मोह्हबत का ,
क्या तुझे भी आसरा नहीं मेरी मासूम मोह्हबत का। .
-----------राजीव रत्नेश ---------------------
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