सदमों से सिहरती ,कड़ाके की ठंढ़ में ,मेरी कहानी में ,
वो लज़्ज़त न होगी ,थी जो कभी भरी जवानी में।
हम जायेंगे तो न लौटेंगे अब तेरी महफ़िल में ,
है नहीं कुछ जोश अब तेरी नौजवानी में।
महफ़िल से जो चली जाओगी ,कुदरत भी छूट जाएगी ,
जाने कैसी है तुम्हारी उल्फत ,हर शै खुद चटक जाएगी।
तुम मोह्हबत को खेल न समझो ,रूठ कर किधर जाओगी ,
लौट के तेरी महफ़िल में न आये ,तो बहुत पछताओगी।
समंदर में किश्तियाँ तो आती -जाती ही रहेंगी ,
बिना पतवार के कैसे उस पार तुम जाओगी।
शरमाओगे हमसे ही ,तो मिलने का रास्ता न पाओगी ,
हम भी भूल जायेंगे तुमको ,हमसे कोई वास्ता न पाओगी।
गमों की बिसात ही क्या है अब तेरी महफ़िल में ,
हम सा ग़मगुसार मिलेगा क्या कोई ,तुझे भरी जवानी में।
ज़िंदगी से न शर्माओ ,वरना झड़ जाओगे पतझड़ में
पेड़ से गिरे पत्तों की तरह ,उड़ती फिरोगी भरी जवानी में।
आएंगे न फिर कभी ,कहने अब कोई दास्तां तुमसे ,
दूर हो जाओगी तुम हमसे ,कैसे बुलाएँगे तुझे मेहरबानी से।
बवंडर था महफ़िल में ,निकल पड़े हैं रहे -मंज़िल के लिए ,
बागबां भी शर्मा के रह गया होगा ,बिना किसी अदाकारी के।
कुछ तो मौसम की शाजिश थी ,वरना सब्ज़ा कोई मुरझा न गया होता ,
हमसे छुपाया भी न गया ,कैसे आग लग गयी हरियाली में।
चालाकियां हमसे ही ,राज अपना छुपाया बड़ी होशियारी से ,
'रतन 'भी आराम से सोता जाकर ,तुम्हारी कालीबाड़ी में।
----------राजीव रत्नेश -----------------------
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