नज़रों से तीर पर तीर चले ,घायल हम हो गए
एक तो यार मेरा मासूम ,उससे तीरे -नज़र कैसे चले।
अफ़सुर्दगी सी राहों में थी ,और हम राह में खड़े थे ,
हालते -मामलात पर नज़रें जमाये ,परवाह किसी की न थी
कुछ थी तो ये थी बात ,ज़िंदगी यार बिना कैसे चले।
बिना उसके तो हम हक़ीक़त में कुछ भी न थे ,
हालते -दुख्तर में वो साथ न दे ,तो कली दिल की कैसे खिले।
हम मोह्हबत से बाज न आयेंगे ,जमाना न दे तसल्ली भले
हार न मानेंगे ,बता दे यार मेरा ,उस बिन काम हमारा कैसे चले।
तसल्ली -ए -दिल होगा ,जब साथ वो हमारे आएगा ,
तभी बात बनेगी ,साथ जब हम कदम दो -चार चलें।
वो घड़ी थी यादे -मोह्हबत ,जब वो साथ -साथ था ,
हो के मज़बूर हम हालात से ,दो कदम कैसे चलें।
वो आये साथ ,तभी दूरी -ए -मंजिल सिमटेगी ,
रास्ते में हम उससे मंजिलों की बात कैसे करें।
माज़रा -ए -हालात से ,उसे साथ ले जाने की सोचते रहे ,
जमाना खिलाफत पे उतर आये तो हम क्या करें
उसी से मोह्हबत है ,अदावत ज़माने भर से है ,
उसे साथ लेकर चलना ही होगा ,भले जमाना दीवार बने।
अब भी अगर आ जाता है ,चौराहे से मोड़ मुड़ के ,
वरना हम ले लेंगे यू टर्न ,इसके सिवा हम क्या करें।
----------राजीव रत्नेश ----------
No comments:
Post a Comment