तुम तसल्ली बख्श सको ,तुम्हारे हाथों में वो हुनर न रहा ,
बातें तुम्हारी बड़ी -बड़ी ,तुझे भूलने वाला वो शहर न रहा।
बात बचपन की हो ,या हो जवानी की ,
तुम्हें याद करने वाला कोई शजर न रहा।
दिल ही दिल में ,मकीं हो तुम ,
तुम्हें याद अब तक कोई -कोई शहर न रहा।
इरादे -दिल से हाथ मिलाओ ,तुम्हारे हाथों में वो हुनर न रहा।
पढ़ी पढाई कॉन्वेंट की ,किसी तरह पास हुई ,
अगले को किया बर्बाद ,किसी तरह हाफ रही।
दिल की न कभी तुम हुई ,न कभी साफ़ रही ,
मेरे पास आकर भी तुम सिफर ही रही।
मज़बूरी में ही पिलाओ ,तुम्हारे हाथों में वो असर न रहा।
पास आकर मेरे तुम मदहोश हो जाती थी ,
अपने गम ,मेरे प्यार में भूल जाती थी।
संदेह रहता था तुम्हें हमेशा अपने ही बारे में ,
बातों ही बातों में ,तुम खुल जाती थी।
रहो तुम मज़बूर ,मेरे पास तुम्हारे प्यार लायक जिगर न रहा।
निकल गये तुम आगे ,पीछे हम लगे रहे ,
पास आये भी तो ,दूर से मिलते रहे।
क्या समझा था अपना दिलदार हमें ,
हम तुमसे ही मिलते रहे ,तुमसे ही झगड़ते रहे।
मोह्हबत की परमिट का कोई इश्तेहार न निकला।
मेरे हाथों का खिलौना भी न तुम बन सकी ,
जो समझाया दिल ने ,वो तुम समझ न सकी।
अनजाने में कहाँ से कहाँ पहुँच गये ,
दुपट्टा सम्हालने की भी समझ न रही।
रही गिरगिट की तरह रंग बदलती ,एक हुनर न सूझा।
जज्बाते -दिल से भी तुम अक्सर खेल जाती थी ,
अपना तो अपना हिस्सा ,गैरों का भी पेल जाती थी।
आदी न थी कभी प्यार की ,बस अपनी ही सोची ,
औरों को देकर दर्दे -दिल खुद झेल जाती थी।
तुम्हें लाये पास मेरे ,ऐसा कोई बशर न रहा।
एक बार पास आकर ,रंगे -महफ़िल तो देखो ,
छोड़ गये थे जिस हाल में ,उसका हश्र तो देखो।
दूर जाकर भी कम से कम खत तो भेजते ,
अपने हाथों अपने को बे -बुनियाद न समझते।
पास आकर दूर जाने का भी शऊर न हो ,तो 'रतन 'को भूल जाओ ,
तुम तसस्ली बख्स सको ,तुम्हारे हाथों में वो हुनर न रहा।
------------राजीव रत्नेश ------------
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