Tuesday, May 27, 2025

कविता - संभाल न सकी तपिश ए मुहब्बत

जो लिख गए नातवानी में उसका सानी नहीं
अलफाज तो हैं मगर अब वो तर्जेबयानी नहीं

परेशान थे जिसके लिए महफिल में अब वो सयानी नहीं
खुद को करके चाकगरेबां दिल को परेशानी नहीं

शिकस्तादिल से कहते हैं उससे भला क्या बयां करते
ख्यालों में बालोपर नहीं अब वो शाहजादी नहीं

कोईसूरत मुलाकात की न निकल आए उससे
खा गए दिल में जख्म हमको कोई शय आजमानी नहीं

किया तर्क मुहब्बत नाक भौं तुमने सिकोड़ कर
मेरी आँखों में अब वो पहले जैसी विरानी नहीं

न कोई हसरत है न मुहब्बत है अब उससे
तपिशेबर्क हमको किसी को अब जतानी नहीं

पर देके परबाज उसे हमने ही बनाया था
संभाल सकी न तपिशे मुहब्बत डूबी चुल्लू भर पानी में ही

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