Monday, May 26, 2025

कविता - ऐसा कर शर्मसार न हो वो

तेरी जुल्फों के बादल
तेरी आँखों के काजल
खूबसूरत चेहरे की बिन्दी 
नथ झुलाए सावन
लरजतीं फिजाएँ शहर की
ये हैं सारे जागीर मेरे

ये रंगमहल नवाबों के
शीशमहल जागीरदारों के
बेमतलब हैं नूरमहल के आगे
करते फरियाद बादशाहत के आगे
ये महल नवद्वारों वाले
झूमते शजर खजूरों वाले

करते आगाज बहारों का
दिलमस्त सितारों का
बेनकाब चेहरों का
दिल के दहकते अंगारों का
मेरी ताजमहल के आगे
करते ताईद मेरी मुहब्बत का

कहती तुम और मोहलत देने को
मेरी मुहब्बत परख पाने को
अभी कमसिन है तिफलेनादां है
क्या समझेगी अभी वफाओं को
उसकी नरगिसी आँखों के फूल चुरा
रहेंगे उसके ख्यालों से भी आगे

मुहब्बत को ऐतबारे चमन कर
जख्म को मरहम से तर कर
बेकरारी को उसके गजलों में न पिरो
खुद ही खुद उससे दूर दूर मिल
वो नहीं सबकी तरह समझदार
अर्जेतमन्ना ही तो की है तेरे आगे

यही कम नहीं खुद लौट के आई है
बिना किश्ती बिना पतवार के सहारे
नाशाद उसे फिर से अब तू न कर
बहार आई उसके जुल्फ की खुशबू बन
फिर उसे आशनाए मुहब्बत न कर
सितमगर जमाने के आगे उसे तमाशा न कर

कभी चमकेंगे जब उसकी जुल्फ के सितारे
वो चमन में फिरेगी चाँदनी के सहारे
तू उसे अपनी बनाने की न सोच
हुई नहीं वो अभी तक तेरे प्यार के हवाले
तमन्नाएँ उसकी जाहिर न कर किसी से
ऐसा कर रतन शर्मसार न हो वो किसी के आगे

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