कोई रास्ता न रहा मिलन का( कविता)
*******************************
चाँद सितारे सफर में/
सूरज पृथ्वी सफर में/
दुनिया की हर चीज सफर में,
हम- तुम बिना सफर कैसे रह सकते हैं?
तुम मुझसे आगे कैसे निकल सकती हो?
सदियों से निकला हूँ मैं सफर में,
तेरा इंतजार भी करता रहा सफर में,
तूने पैगाम भी भेजा था प्यार का सफर में/
तू गोल गौहर थी, गुलनोहर की तरह,
मैंने तुझे अपनी बनाने की सोची भर ही थी/
सालों हम तुम साथ- साथ रहे, प्यार परवान चढ़ा,
तुमने मुझे चाहा, मैंने तुझे चाहा/
ऐन मौके पर तेरे बाप ने तुझे लत्ती लगा दी,
और तू छः फुटे लम्बे लपूझन्ने की गोद में गिरी/
मैं पाँच-सात का, तू पाँच- दो की,
निभ सकता था साथ मेरा तेरा भी/
पर तूने कहीं पर बाप के सामने हामी न भरी,
और एक अनजान सफर पर चली गई/
शायद मजबूरी में या अपने बाप की मर्जी से,
किसी तरह तुझे निपटाया निपटाया गया कम खर्ची से/
तुमने किससे- किससे नहीं बेवफाई की,
किसी गैर ने शादी के दिन ही तेरी शामत बुलाई/
पर तेरा बाप भी था अपने गिरोह का सरगना,
एक- एक पहलवान की करा दी पिटाई/
हर एक के अपने- अपने संस्कार भी होते हैं,
जो खानदानी न होकर अनेक जन्मों के संचित होते हैं/
तेरे संस्कार मेरे संस्कारों से मेल कर न सके,
तू अपनी धुरी छोड़ कर अनजान रास्ते पर गई/
तू मेरे मोहजाल से निकल कर और के मोहपाश में बँधी,
क्या दुख तूने सहे, क्या गम मैंने झेले/
यह न मैं समझा, न तू ही कुछ समझी,
अलबत्ता तू दूसरे शहर में, मैं अपने शहर में/
तू अपनी इज्जत बचाए या गैर की तमीज करे,
कोई रास्ता न रहा मिलन का अपने शहर में/
छूट गया तेरे सपनों के शहर में आना जाना,
मेरी होने के बावजूद पराई थी, मैंने तुझे जाना/
क्यूँकि तुम लगातार सफर में ही रही,
और मुझसे भी आगे निकल गई/
राजीव रत्नेश
******************
No comments:
Post a Comment