किसी को इतना भी दबाना नहीं चाहिए
की वह मजबूर एक आह को भी तरसे
पिछली बार भी बाला की तपिश थी
इस बार भी पता नहीं सावन बरसे न बरसे
हम क्यूँ फिरते रहे मुह छुपाते मुह चुराते
अख्तियार उनको था मेरी मौत पर आते न आते
गोते खाते ही ज़िन्दगी अपनी तमाम हुई
हम डूबे भी तो किनारे पे आ कर के
मालूम नहीं क्या लुत्फ़ मिलता है किसी को
धोखा खाकर फिर उसी पत्थर से टकराने मे
नहीं चाहिए तुम्हारी नवाजिश हमको अब तो
उम्र तमाम हुई तुम जैसों को यार बनाते-बनाते
चुल्लू भर पानी भी न मिलेगा तुम्हे
कहाँ तक फिरोगे मुह चुराते छिपाते
हमें मालूम नहीं था इस तरह दमन झाताकोगे
जब कोई सहारा न था किस तरह मंजिल तलाशते
tamam दौड़ ख़तम हुई ,ख़तम हुई भागा-भागी
अच्छा होता रिश्तेदारों जो तुम घर के बाहर मरते
धुप में बाल सफ़ेद नहीं किये हमने अपने
अभी तुम निरे बच्चे हो चले हो पहाड़ा पढ़ाने
सिकंदर मारा तो दुनिया जहां जान गए
मैं मिटा तो कोई नहीं आया कब्र पे फूल चढाने
मैं ही अकेला गुनेहगार नहीं किसी का
तुम खुद ही फ़ैल हो गए मदरसे में दाखिला लेके
मुझे नहीं चाहिए थे तुम्हारी मेहेर्बानियाँ
एक को छोड़कर तमाम के एहसान उठाते
मर गया मैं दुनियावालों से यह कहके
बहुत गुलज़ार किया मेरे कमरे में बैठकी लगा के
मैं फिर-फिर आऊँगा दुनिया में लौट के
तुझसे निपटने कुत्ते की बोली बोलने वाले
तुम्हारी कसम थी मेरे को न हाथ लगाने की
मैं जनता था वह न बैठेगा चुप कपालक्रिया कर के
गोया आशना थी वोह मेरी रहो-रग से
मर गया मैं मैं आई भी तो तेरही में आग लगाने
मैं समंदर किनारे भी प्यासा ही रहा 'रतन '
जबकि गंगा बहती थी मेरे घर से हो कर के
----------
Wednesday, June 2, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
... बेहद प्रभावशाली
किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
Post a Comment