बहार के लोग भी क्यों नवाजें
जब घर के ही लोग बाहर भगाएं ?
ये तो हमारा ही जिगर था जो जान?
बचा कर तेरी महफ़िल से भाग आयें
वहां भी काँटों की सेज यहाँ भी वही
दिल लगाया फूल से पर कांटे ही पाए
ना अब तेरी लगजिश पर तुझे थामेंगे
एक बार नहीं कई बार की हमने खताएं
हमें नहीं गरज नाजों-अंदाज़ तेरे सहें
खुद भी फसें और तुझे भी फसाएं
तू अपनी मंजिल खुद ही तलाश कर
हम नहीं तेरी आरज़ू तुझे कौन समझाए?
इश्क ही नहीं मेरा फसाद की जड़ था
हुए गुमराह हुस्न ने वो मंज़र दिखाए
समअन्दर से भला किसकी प्यास बुझी
दूधिया चांदनी बिखरी शबनम से नहाये
किस्सा-ए-कोताह अब न मुब्तिला होंगे
बार-बार तू पास आये,बार बार दूर जाये
हमने राजे-पर्दा , राज़ रखने की गुजारिश की
धर दिए हम ही पर तुमने इलज़ाम सारे
आज जब तनहा हूं आता याद तेरा फ़साना
हम मरें नाले और तू बज्मे-जश्ने-बहारां सजाये!
बुझ चुकी शमां मिट चुका तेरा परवाना
तेरी नवाजिश पर कुर्बान हम बार-बार जायें ,
जलवा तेरी महफ़िल का देखा किये 'रतन'
दागे-रुसवाई लगा कर कितना तुम मुस्कुराये?
------ ------ ------- -------- ------ --------
सांस यूँ ही अटक गयी
राह आके सामने रुक गयी
तुम न आ सके
ज़िन्दगी फिर ठहर गयी
अनवरत संघर्ष के बाद
भी मंजिल खिसक गयी
डरता रहा हर लहर को
भंवर समझ कर
कुछ न कर सका
प्रयत्न फिर सिमट गए
समझा तुम एक बार आओगे
इसी आस में ज़िन्दगी गुज़र गयी
-rajeev ratnesh
Friday, January 14, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment