दिल से उठती आहों ने
कहा मुरझाते गुलाबों से
शिकवा तुमको है क्यूँ ?
हाले-दिल बर्बादों से
खुद ही इतराए बागों में
छिपाया आड़ में काँटों के
किसी ने न पूछा जब
चाहत न बने अरमानों के
न मूरत पर चढ़े
न मज़ारों पे
माजरा ये कि गुँथे
न कभी हारों में
पथ में बिछे कभी
न सजे गजरों में
अपने-अपने न रह़ें
साथ निभाया परायों ने
जाते जाते सजा जाना
धरती को सौगातों से
रहेगा पछतावा 'रतन'
खेलते रहे अंगारों से
कहा मुरझाते गुलाबों से
शिकवा तुमको है क्यूँ ?
हाले-दिल बर्बादों से
खुद ही इतराए बागों में
छिपाया आड़ में काँटों के
किसी ने न पूछा जब
चाहत न बने अरमानों के
न मूरत पर चढ़े
न मज़ारों पे
माजरा ये कि गुँथे
न कभी हारों में
पथ में बिछे कभी
न सजे गजरों में
अपने-अपने न रह़ें
साथ निभाया परायों ने
जाते जाते सजा जाना
धरती को सौगातों से
रहेगा पछतावा 'रतन'
खेलते रहे अंगारों से
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