Saturday, December 13, 2025

शायद तुम कल आओ ( नज्म )

शायद तुम कल आओ ( नज्म )
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रोज सबेरा,
आशा का एक नया सूरज
उगा जाता है/
कि कल तुम नहीं आई,
आज जरूर आओगी,
दिल को दिलासा दे जाता है/

मैं जानता हूँ कि,
यह सूरज भी डूब जाएगा,
पर मेरा इंतजार खत्म नहीं होगा/
कल फिर नये,
सूरज के इंतिजार में,
झील किनारे बैठा रहूँगा/

कँकरियाँ फेंकते बैठा रहूंगा,
झील के किनारे,
गहरे पानी में तुम्हारा अक्स,
उभरेगा झील में,
तुम पीछे से आकर,
मेरी आँखें मूँद लोगी/

और मेरे गले में,
बाहें डाल कर कहोगी,
' कबसे बैठे हो?
चलो घर चलो?
पर सूरज तो कब का,
ऊपर चढ़ चुका,
पर तुम न आए/

अब कल सबेरे का,
मुझे इंतजार रहेगा,
" शायद तुम कल आओ"

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