*************************
रोज सबेरा,
आशा का एक नया सूरज
उगा जाता है/
कि कल तुम नहीं आई,
आज जरूर आओगी,
दिल को दिलासा दे जाता है/
मैं जानता हूँ कि,
यह सूरज भी डूब जाएगा,
पर मेरा इंतजार खत्म नहीं होगा/
कल फिर नये,
सूरज के इंतिजार में,
झील किनारे बैठा रहूँगा/
कँकरियाँ फेंकते बैठा रहूंगा,
झील के किनारे,
गहरे पानी में तुम्हारा अक्स,
उभरेगा झील में,
तुम पीछे से आकर,
मेरी आँखें मूँद लोगी/
और मेरे गले में,
बाहें डाल कर कहोगी,
' कबसे बैठे हो?
चलो घर चलो?
पर सूरज तो कब का,
ऊपर चढ़ चुका,
पर तुम न आए/
अब कल सबेरे का,
मुझे इंतजार रहेगा,
" शायद तुम कल आओ"
"""""""""""""""

No comments:
Post a Comment