कभी_कभी ऐसा लगता है ,
इतनी बड़ी दुनिया मे ,
अपना कोई नही ।
व्यर्थ में ही मै ढूंढता हूँ
gairon में अपनेपन का अहसास
और उसी मे बसर कर देता हूँ
चन्द अपने कीमती लम्हात ।
कहीं ठोकर सी लगती है ,
निरर्थक हो जाते हैं सारे प्रयास ।
बड़ी चुभन सी होती है
कंटीले तारों की बाढ़
चारों ओर्र होती है
और मेरा रास्ता रूक जाता है
तो मैं सोचता हूँ
क्या यही है संसार ।
व्यर्थ की दुराशा
रूक जाती हैं धड़कने
साँसों का संचार
कभी_कभी ऐसा लगता है
इतनी बड़ी दुनिया मे
अपना कोई नही ।
जन_मानस के मुर्दा खाने मे
दफनाई गई अपनी भी लाश ,
ठहर गया , मंजिल पाने का
धारा रह गया सारा प्रयास ।
मह्त्वाकान्शाओं का महल
धराशायी हो गया ,
हो गया कहाँ से main
स्वयं ही निरुपाय ।
क्या यही था, अनवरत
संघर्ष का एलान
अपने हो जाते हैं पराये
यह सुना था। देखा भी
रह नही गया बाकी
हृदय मे baaki कोई अरमान ।
sankirdtaa के दायरे मे
जीती है दुनिया
hame सोचने पर कुछ
कर देती है लाचार ।
और मैं अपने ही ताने_बाने मे
उलझ कर रह गया
नही कर सका कुछ
कदम बढ़ा कर चलने को
नही रह गया अवकाश ।
इस सिसकती दुनिया मे
अपने मनोभाव
सिमट कर रह गए
आगाह भी नही कर सके
अपने_परायों को
घुट कर रह गए
अपने चाहत के अरमान ।
अच्छी लगती थी कभी
सुबह की पहली किरण
गुनगुनाहट भवरों की
चहचाहट चिडियों की
झरनों का काल_कल निनाद ।
अब तो व्यर्थ सब
सूना_सूना लगता है
कभी_कभी ऐसा लगता है
इतनी बड़ी दुनिया मे
अपना कोई रहा ही नहीं ।
Sunday, October 11, 2009
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1 comment:
पीड़ा के सामुद्रिक अंतस्थल में
प्रभु को याद करने के सिवा
कोई और नाम याद आता नहीं
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