मंजिल तक वो नहीं पहुचते
जो आगाज़ से ही डर जाते हैं ,
मट्ठा भी फूंक_फूंक कर पीते हैं
हैफ ! लोग दूध से भी जल जाते हैं ।
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बाहों में आना ज़रूरी था अगर ,
होंठ से होंठ क्यो न मिल गए ।
फिसलना इश्क मे मुनासिब था अगर ,
फिसलते_फिसलते क्यो संभल गए ।
अपना समझ कर क्या भूल हुई
तुम गैरों में फ़िर क्यों भटक गए ।
संगीन तो न था मामला इतना
फ़िर क्यो न लौटे देर रात गए ।
अफलातून हैं आप फ़ोन न उठा सके ,
हम किस से कहें वो वादे से फ़िर गए ॥
कहते रहे वफ़ा की राह लम्बी नहीं ,
फ़िर आप क्यो न पहले ही बिछड़ गए ।
चांकगरेबान ही होना था तुमको 'रतन'
ख़ुद को तुम अपनी लगा नज़र गए
Friday, November 20, 2009
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