कहाँ सोचा था
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महफिल में उसकी हर बात पे सजा
लब खामोश थे ,राह रोके थी हया
कुछ तो बात न थी हमारे दरमियाँ
किस कदर उठा लिया सर पे आसमां
खैरमक्दम कम करते न बना हमसे
दूर होते गए वो हमसे हम देते रहे सदा
पर्दगी -पर्दगी में हर कोई मारा गया
बेशऊरी ने उसकी कर दिया सबको बरहना
पहले नहीं था वो मिसाले -नकहते -जां
बन सका न वो कभी अच्छा राजदां
तीरे -नजर से सबको कर गया घायल
थे न कभी हम उसकी हरकतों पे फिदा
बात न थी कोई ,फिर भी सबको पता
था क्या फिगारे -चमन ,था क्या मर्तबा
कुछ तो बात है ,जो चुप लगाए बैठा है
खामोश होने वाली न थी उसकी जुबां
गफलत में हाथों से उठा लिया जाम
कहाँ सोचा था ,इसमें होता है नशा
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