काश ! मुहब्बत लाचारी न होती ,
मुझ पर तुम्हारी मेहरबानी न होती ।
अपने भी दुश्मन बन गए आखिर
काश निगाहों की मेजबानी न होती ।
हमारी मुहब्बत कोई पहचाने न
दिल से दूर यह बदगुमानी न होती ।
दूसरों की बदमिजाजी न होती ,
गर जो तुम्हारी नातवानी न होती ।
ख़ामोशी की ज़बान सभी समझते हैं ,
मुहब्बत कभी भी ज़ुबानी नहीं होती ।
खुद से दूर हुए तुम हमसे 'रतन',
गोकि औरत कभी बेचारी नहीं होती ।
Sunday, March 28, 2010
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