तूलिका भी हो रंग भी हो ,
कनवास भी हो ,
और गर मैं
चित्रकार भी होता
फिर भी भगवन तुम्हारी
तस्वीर नहीं बना सकता ।
कारण साफ़ है ,
तेरी कोई रूपाकृति नहीं ही।
तू रोम_रोम मे समाया है
कण_ कण मे व्यापक है ।
हो मेरे ही अंतर्मन मे
पर आज तक अफ़सोस
तुम्हे पहचान न पाया
ठीक से जान न पाया ।
ये बात नहीं है की
मैंने कोशिश नहीं की
बारम्बार ध्याया है तुझे
समाधि मे बुलाया है तुझे ।
तुम्हारा आज तक कर
नहीं पाया संधान ,
तुम अगम हो अगोचर हो
फिर भी मुझसे अछूते नहीं हो
मैंने बार_बार तुम्हारा अनुभव किया है ।
देख देख कर सितारों की चाल ,
ये हरियाली ये बाग़_बगीचे
क्या नहीं तुम्हारी उपस्तिथि के गवाह
पर मैं सोचता हूं
यह सब करने की
ज़रूरत क्या है
क्यों न मैं अपनी
आत्मा में भी व्यापक
तुमको निरख लूं ।
और एक बार
बस एक बार ही
तुम्हारा अनुभव
अपने अन्दर ही कर लूं ।
Friday, July 23, 2010
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4 comments:
खूबसूरत अभिव्यक्ति.....
कृपया कमेंट्स कि सेटिंग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें...टिप्पणीकर्ताओं को आसानी होगी
मंगलवार 27 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
word verification hata len Plz
और एक बार
बस एक बार ही
तुम्हारा अनुभव
अपने अन्दर ही कर लूं ..
बहुत खूब लिखा है ... जब उसकी सत्ता को आत्मसात कर लेंगे ... खुद ही उसका रूप हो जायेंगे .... फिर चित्र की क्या जरूरत है ...
अच्छी लगी ये पोस्ट
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