Friday, February 7, 2020

          ऐसी क्या मजबूरी थी। -
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सुहाना है समां मस्त समीर बह रही है 
बीती रात की दुल्हन अभी तक जग रही है 
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन हर कहीँ 
मेरी बाहों मेँ अब तक चांदनी मचल रही है 

माना था मैंने भी ,मुहब्बत तुम्हीं से करते हैं 
तुम्हारे सिवा न किसी को दिल में रखते हैं 
अपनों को छोड़ कर मेरे पास आओगे 
महफिल से तुम्हें ले जाने का यकीं रखते हैं 

छिटक गया चाँद पहलू से ये क्या हो गया 
अजब जादू था जो तुम्हारे सर चढ़ कर बोला
अरमानों के अरमान थे गुनाहों के गुनाह 
हर कोई तुम्हारा था तुम्हारी तरफ से बोला 

सेज पर गंध इतर बन के फैली गुलाब की 
कुछ तो हिम्मत बाकी थी दिले -नातवां की 
तुम खुद समझे हमसे समझाया ना गया 
ये कैसी अदा दिखाई आफत हो गई गुलिस्तां की 

मुजरिम प्यार के तुम या मैं नामालूम 
कतर डाला हो जैसे किसी ने परबाज के पर 
हैरान -परेशान है बागबां किसकी है खता 
काँटों भरा रास्ता देखकर खींच लिए कदम 

उलझन में आलम चाक है गरेबान 
हुस्न ने किया इश्क को लहूलुहान 
तेरी मोहिनी सूरत ने क़त्ल कर डाला 
ये भी न सोचा क्या होगा अंजाम 

जलवा -ए सितम का जोर यकीनन बदस्तूर 
नाला ए दिल को समझा यूँही हो के बेफिकर 
शमां तो जली महफिल में शब् भर 
बचा न कोई परवाना ,लाशें मिलीं बेकफन 

समूची धरती खोद गया गुलिस्तान की 
मिली न कहीं खबर मेरे यार की 
कहाँ तो नज़रों पे गुलाब सा रखते थे 
अब लेते नहीं खबर हाले दिले बेकरार की 

कजरा बह गया अँखियों से आँसुओं के साथ 
एक लकीर छोड़ गया आरिज पे बन के दाग 
दिल में आँसुओं का सैलाब लब पे मुस्कान 
ऐसी क्या थी मजबूरी क्यूँ छुड़ाया अपना हाथ 
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