Tuesday, March 16, 2010

मजबूरी

तुम वो नगमा हो
जिसे हम गुनगुना नहीं सकते
तुम वो साज़ हो
जिसे हम बजा नहीं सकते
तुम मेरे दिल की
वो खामोश सदा हो ,जिसे
हम चाह कर भी
किसी को सुना नहीं सकते
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जीने की सजा हम पाए हुए हैं
बिन पाए तुझे हम पाए हुए हैं
मर मर कर भी जीने को मजबूर हैं
ज़ख्म मोहब्बत से बहुत खाए हुए हैं
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तेरे मिलने की आस में
सड़कों की ख़ाक छानता रहा
तू मिल न सका मुझसे
सिर्फ रहगुजर ताकता रहा

कितना खुशनुमा मौसम था
जब तू पहली बार mila था
अबकी मिलते भी तो ऐसे
जैसे बरसों से बिचड़ा था

मैं तुझे देखकर कैसे
अनदेखा करू
न देखूं तुझे तो
किसे देखा करून

तू ही बता ई सनम
ये दूरियां अब कैसी
जज्बात मिट गए
अब सलामियाँ कैसी

मौसम बहार का था
शायद वह सावन था
मेरी डायरी में लिखा
तेरा पता मनभावन था

तेरी याद में आसूं
मिज्गाअन में पिरोता रहा
अबकी मिलो तो
मौसम भी रोता रहा

अफसुर्दा मौसम
ये सुरखाब का नज़ारा
कैसा होता है
ये मोहब्बत का tamasha

तेरा वो तीर
दिल को पार निकल गया
मैं सोचता ही रहा
और तू दूर निकल गया

अपना कौन
दर्देदिल कहूं किस्से
दूरियां बढ़ रहीं
मिलें तुझसे कैसे

बड़ी बेबाक तेरी बातें
अपनों से जैसे अपनों की बातें
दुआ सलाम तक का आलम
उन गुजरे लम्हात की बातें

रौशनी सकुचाती है
तेरे बगैर ही मुस्कुराती है
अपना हुआ बेगाना
ये प्यार का दुश्मन जमाना
दिल बीसमिल जिगर घायल
अपना ही क्या रहा ठिकाना

तेरे होठों से वो मौसम की बातें
बातों ही बातों में
बातें ही बातें
पुरशरसआर थी महफ़िल

सरेबज्म तेरी
बेबाक बातें
कहीं से नहीं आते ख़त
दें जवाब किसका

इंतज़ार किसी का
ये ख्याल किसका
आरजू में तेरी हाल अब किसका

बिछड़े सनम
तेरा मासूम चेहरा
बस्ता है आँखों में
कैसे हते तुम पर से pएहर

2 comments:

Dev said...

तेरी याद में आसूं
मिज्गाअन में पिरोता रहा
अबकी मिलो तो
मौसम भी रोता रहा
पंक्तियों का सार अत्यंत मनोहर है

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

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