समय को कितना
ही कस कर पकडो
वह सरक ही जाएगा
हाथों में छोड़ कर केंचुल ।
समय सरक रहा
अविरल प्रतिपल
इसका विश्वास कठिन है
भूत भविष्य को छोड़ो
सब, वर्तमान पर छोड़ो
नही तो एक दिन
यह सब कुछ
लूट ले जाएगा
नियति का माध्यम बना।
समय किसी को
नहीं बक्श्ता
काल चक्र के आगे
समय बेसहारा है
सब समय से ही हारे हैं
फ़िर काल के आगे
किसका चला
इसलिए समय को
पकड़ने की कोशिश न करो
वरना यह fun उठा कर
तुम्हारे विश्वास को दस देगा
और तुम्हे दे देगा एक
अनजानी अनचाही मौत।
समय का चक्र जब
कुचक्र बन जाएगा
इससे कौन बचा
न योगी, यती न रजा
न रंक
देवता तक इसके
चंगुल में हैं ।
फ़िर तो यह किसका है,
शायद किसी का नहीं
फ़िर अपने पराये में क्या रखा है
अपना अंहकार, अपना अभिमान
विगलित करने में क्या
नही कोई फायदा है
सब है काल_चक्र के सामने
बौने,ठिगने, और लंगडे
हमारा तुम्हारा अस्तित्वा
ही क्या है ।
हम आज हैं कल नहीं
इसके लिए कोई
जिम्मेदार नहीं
बस एक समय है
बस चलता ही जाता है
समय कब से चला है
कोई नहीं जनता
सृष्टि कब से बनी
इसका भी सिर्फ़
अनुमान हैं पर
समय असाधारण है।
इसकी किसी से
मिसाल नहीं
शायद इश्वर की
तरह यह भी है
अनादी अनंत
कोई और _छोर नहीं
या समंदर की तरह
अगाध
जिसकी कोई थाह नहीं
चाहे जो कुछ भी हो
समय का कोई भरोसा नहीं
आज का काम
कल पर न छोड़ो
या तो अपनी आत्मा से
नाता जोडो
जो शाश्वत है और
समय भी इसको पकड़ नही सकता।
काल चक्र का इस पर
कोई प्रभाव नहीं
यह अपने आप में
परितृप्त है
स्वयम्भू है
निर्गुण निराकार है
इसका उदय और
अवसान नहीं
संकल्प से शरीर करती धारण
फ़िर जीव हो कर
करती समय का
अनुसरण
फ़िर फ़िर वही समय
फ़िर वही काल चक्र
सत्य तो बस यही
आत्मा है
इसलिए आत्म्मा से
आत्मा मे संतुष्ट रहना
ही सच्चा ज्ञान है
आचार्य शंकर का
अद्वैत है गीता का ज्ञान है
समय और आत्मा का
लगता सामंजस्य है
सब हैं इससे भ्रमित
कोई समाधि लगा
फ़िर भी जान न पाया
आत्मा को जानना
कोरा खेल नहीं
कुछ ने भक्ति से
कुछ ने अष्टांग योग किया
कोई तत्वा ज्ञान
का ग्यानी बना
पर समय, काल चक्र
और आत्मा का
भेद समझ ना आया
कार्य स्थूल से
चिंतन सूक्ष्म से
और समाधि
कारण शरीर से
पर सारे ये प्रकृति के हैं
फ़िर मन बुद्धि अंहकार
का पुनरावर्तन
फ़िर कहीं जा कर
आत्मा का अनुसंधान
क्या आत्मा ही सच हैं
जीव लगा दे तो जीवात्मा
पर लगा दे तो पत्मात्मा
दोनों हटा दे तो बची
सिर्फ़ आत्मा आत्मा ही आत्मा
आत्मा ही एक है
जो सर्व व्यापक है
चिंतन का विषय है
बहिर्मुखी का चिंतन छोड़ कर
जो अंतर्मुख बना
अपने ही अन्दर जो
उसी ने इसका
ज्ञान पाया
पोथियों_पुरानो से कोई
इसका भेद समझ नही पाया !!!!!!
"राजीव रत्नेश"
Wednesday, December 17, 2008
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