Tuesday, June 17, 2025

रतन अपनी मर्जी का मालिक( कविता२)

मेरी शैली ही मेरी संस्कृति, जिसमें बदलाव नहीं है!
दिल सूना, आँखें सूनी, पर उन्हें तेरा इंतजार नहीं है ।
करना उछल-कूद,. खेलना दोस्तों के साथ बचपन में, 
याद है सब कुछ, पर जिन्दगी में उनका साथ नहीं है!
जबसे गया है तू, मुझे कोई परेशानी नहीं है,
जवानी आई, पर मेरे दिल में हलचल और तूफान नहीं है!
मन-मर्जी का मालिक हूँ, खुद पे अख्तयार भी है!
बादा- ओ- पैमाना, साकी से मुझे कोई सरोकार नहीं है!
पिलाया न कभी साकी ने खुद मय अपने हाथों से;
वाइज मुझे क्या समझाते, दिल इतना नादान नहीं है!
मुहब्बत की नहीं जाती, अपने आप हो जाती है;
मिले तू ही मुझे, ऐसा कोई दिल में अरमान नहीं है!
जुल्मो-सितम जमाने के देखे, दिल के धधकते शोलों को हवा दी,
इक बार लगी आग, कैसे कह सकता हूँ, अब इम्तहान नहीं है!
दस्तूर जमाने का देखा, बेमुख्वत तू भी नहीं,
जमाना है गमख्वार तो मुझे कोई शिकायत नहीं है! 
दिलजलों की महफिल में भी बैठा दो- चार घड़ी;
ददेदिल का मुझे पता नहीं, कोई इमकान नहीं है!
बरसात भी अच्छी लगती थी, चिड़ियों की चहक दिल बहलाती थी,
मुझे दश्त की आग का पता नथा, कोई अँदाज नहीं है!
साथ के यार छूटे, महबूबा रूठी, पीठ पे खंजर का वार सहा मैंने,
किसने दिया है किसका साथ, सहरा में भी ख्याल नहीं है!
अबकी जब सावन आएगा, पेड़ों पे पड़ेंगे झूले,
पेंग बढ़ाना तुम मेरे साथ, मेरे लबों पे तो इंकार नहीं है!
' रतन' अपनी मर्जी का मालिक, तू भी कम खुद्दार नहीं है;
आ जा छोड़ के दुनिया के झमेले, उसमें कहीं प्यार नहीं है!!

             राजीव रत्नेश
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