प्रतिध्वनित होते कँगूरों से!
आविर्भाव होता कभी क्या?
तुम्हारा भगवान!
चढ़ते छप्पन- भोग;
नेवैद्य; नारियल और फलफूल!
प्रगटित होते मेरे अंर्तमन में तुम;
हृदय के किसी कोने में भगवान!
मैं भी तुम्हारे नाम का;
करता निरंतर जाप!
करता सदा गुणगान;
मालूम होता;
कहीं पर अवस्थित नहीं;
कोई तुम्हारा सुखधाम!
चे सब मुझे केवल; पासटाइम लगे;
नहीं कहीं स्वर्ग-नरक;
न गोलोक; न साकेत धाम;
न क्षीरसागर विद्यमान!
पहले की तरह नहीं कर पाता;
धारणा; समाधि और ध्यान!
पहले मेरे लिए थे फूल;
फूल से खुशबू बने;
फिर हवा की तरह फैल गये;
सारे ब्रहमांड में तुम हुए व्याप्त!
नहीं हो पाता मुझसे;
साकार का पूजा-अर्चन;
करो माफ मुझे तुम भगवान!
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तेरा जवाब तो बस तू ही है;
तेरे जैसा न हुआ है; न होगा!
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राजीव रत्नेश
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