Saturday, June 7, 2025

प्रिया मिलन की चाह( कविता२)

प्रचंड गर्मी है सूरज उबल रहा है;
तुझे मिलना है मुझसे; समझ रहा है!
आजा पास मेरे; दिल के सहारे;
धीरे- धीरे मौसम बदल रहा है!

कभी- कभी तो मिलते हैं मौके;
लगी है होंठों को तीव्र प्यास!
जंगल में कहीं लगी हो जैसे आग;
आजा तुझसे लगी मिलन की आस

सबर न कर; तमन्नाओं पर रोक न लगा;
सजी-धजी प्यार की दुनिया न उजाड़!
मिलने की कर जुगाड़; छटपटा रहे प्राण;
बरसी बदली जो; बुझ जाएगी जंगल की आग!

बढ़ाया तुमने ही हाथ; दिल मिलाने के लिए;
दिया पैगाम मुहब्बत को पाने के लिए!
आ जा सहरा से जंगल की छाँव में;
दिल की लगी; तपिशे बदन मिटाने के लिए!

जहन्नुम का रास्ता अपना मोड़ दे;
दिल से दिल का रिश्ता जोड़ दे!
आ जाओ अपनी महफिल में लौट के;
माथे पर अलकों को मचलने को छोड़ दे!

आए मिलने को सारी बाधायें तोड़ कर;
बंधन की सारी व्यवस्थाएँ छोड़ कर!
अपना समझ कर ही व्यवहार बढ़ाया था;
चले आए मंजिल की राह तुम मोड़ कर!

हमने सोचा भी था न कभी;
दिल को दर्द दोगे तुम कभी!
मौके की नजाकत समझ कर;
खुद ही मिलोगे कभी न कभी

हाल- ए- दिल तुमको सुनाया था;
आँखों को इस काम पे लगाया था!
अनजान देश से तुम आए थे;
कुछ समझ कर ही तुम्हें अपनाया था!

         राजीव रत्नेश

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