Wednesday, June 4, 2025

मौसम की पुकार( कविता४)

जंगल में मोर नाचे;
बागों में कोयल कुहुके;
खोला मौसम ने पिटारा;
चमन में फूल बिखेरे!

देख कर तेरा आनन मन मचले;
सर से तेरा आँचल खिसके;
दिल तेरा बाग-बाग होवे;
नाक में तेरी नथ डोले!

समंदर पे सीप उतराए;
  रंग बिरंगी मछली चाल दिखाए;
तू लहरों की जलपरी;
मन मेरा सागर को मथ डाले!

मस्तकली तू बाग में चटके;
भौंरे तेरे आगे मटके;
चले मदमाती मस्त बयार;
तेरी आँखें मय के प्याले!

गगन में चाँदनी शरमाए;
मगन हुए कोहसार;
क्षण में बादल; क्षण-क्षण रिमझिम;
गर्मी की बरसात दिल मोहे!

हम तुम गुल्शन में डोलें;
नैनों में तू मदिरा घोले;
कभी कभी रिमझिम बरसे;
डालों पर पपीहा बोले!

देख कर प्रकृति की छटा;
किसी के हृदय की भंगिमा नाचे;
हम तुम एक रहें; साथ रहें;
तेरे माथे की बिंदिया बोले!

की हमने मौसम से मनुहार;
लगा के काजल आईरात;
कर ली दिलने दिल से बात;
बिताएँगे रात हौले- हौले!

सुमधुर गुंजार भँवरों की
फिजाँ में झिंगुरों की झनकार;
तन बदन की सुध बुध भूलें;
मस्ती से एक दूसरे को चूमें!

आ जा मिलन हो जाए एक बार;
जमाना बन न पाए दीवार;
अठखेलियाँ करता रहेगा मौसम;
करेगा' रतन' प्यार आहिस्ते-आहिस्ते!

________ राजीव रत्नेश________

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